ऊधौ तुम जानत गुप्तहि चारी।
सब काहू के मन की बूझत, बाँधे मूड़ फिरत ठगवारी।।
पीत धुजा उनकी मनरंजन, लाल धुजा कुबिजा व्यभिचारी।
जस की धुजा स्वेत ब्रज बाँधे, अपजस की ऊधौ पै कारी।।
वै तो प्रेमपुज मन रंजन, हमतौ सीस जोग व्रतधारी।
‘सूर’ सपथ मिथ्या, लँगराई, ए बातै ऊधौ की प्यारी।।3746।।