द्वयधिकद्विशततम (202) अध्याय: द्रोण पर्व (नारायणास्त्रमोक्ष पर्व)
महाभारत: द्रोणपर्व: द्वयधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 70-90 का हिन्दी अनुवाद
देवताओं के ऐसा कहने पर भगवान शिव ने ‘तथास्तु‘ कहकर उनके हित की इच्छा से गन्धमादन और विन्ध्याचल इन दो पर्वतों को अपने रथ के पार्श्ववर्ती ध्वज बनाये। फिर समुद्र और पर्वतों सहित समूची पृथ्वी को रथ बनाकर नागराज शेष को उस रथ का धुरा बनाया। तत्पश्चात त्रिेनेत्र धारी पिनाकपाणि देवाधिदेव महादेव ने चन्द्रमा और सूर्य दोनों को रथ के पहिये बनाये। एलपत्र के पुत्र और पुष्प दन्त को जूए की कीलें बनाया। फिर त्र्यम्बक ने मलयाचल को यूप और तक्षक नाग को जूआ बाँधने की रस्सी बना लिया। इसी प्रकार प्रतापी भगवान महेश्वर ने अन्य प्राणियों को जोते और बागडोर आदि के रूप में रखकर चारों वेद ही रथ के चार घोड़े बना लिये। तत्पश्चात तीनों लोको के स्वामी महेश्वर ने उपवेदों को लगाम बनाकर गायत्री और सावित्री को प्रग्रह बना लिया। फिर ओकांर को चाबुक, ब्रह्मा जी को सारथि, मन्दराचल को गाण्डीव धनुष, वासुकि नाग को उसकी प्रत्यन्चा, भगवान विष्णु को उत्त्म बाण, अग्निदेव को उस बाण का फल, वायु को उसके पंख और वैवस्वत यम को उसकी पूँछ बनाया। बिजली को उस बाण की तीखी धार बनाकर मेरु पर्वत को प्रधान ध्वज के स्थान में रखा। इस प्रकार सर्व देवमय दिव्य रथ तैयार करके असुरों का अन्त करने वाले, अतुल पराक्रमी, योद्धाओं में श्रेष्ठ तथा सदा स्थिर रहने वाले श्रीमान भगवान शिव त्रिपुरवध के लिये उस पर आरूढ़ हुए। पार्थ! उस समय सम्पूर्ण देवता और तपोधन महर्षि भगवान शंकर की स्तुति करने लगे। उन भगवान ने उस अनुपम एवं दिव्य माहेश्वर स्थान का निर्माण करके उस पर एक हजार वर्षों तक स्थिर भाव से खड़े रहे। जब वे तीनों पुर आकाश में एकत्र हुए, तब उन्होंने तीन गाँठ और तीन फल वाले बाण से उन तीनों पुरों को विदीर्ण कर डाला। उस समय दानव उन नगरों की ओर कालाग्नि से संयुक्त एंव विष्णु तथा सेम की शक्ति से सम्पन्न उस बाण की ओर भी आँख उठाकर देख न सके। जिस समय वे तीनों पुरों को दग्ध कर रहे थे, उस समय पार्वती देवी भी उन्हें देखने के लिये एक पाँच शिखा वाले बालक को गोद में लेकर वहाँ गयीं। पार्वती देवी ने देवताओं से पूछा– ‘पहचानते हो, यह कौन है?’ उनके इस प्रश्न से इन्द्र के हृदय में असूया और क्रोध की आग जल उठी, वे उस बालक पर वज्र का प्रहार करना ही चाहते थे कि सर्व लोकेश्वर सर्वव्यापी भगवान शंकर ने हँसकर उनकी वज्र सहित बाँह को स्तम्भित कर दिया। तदनन्तर स्तम्भित हुई भुजा के साथ ही देवताओं सहित इन्द्र तुरंत ही वहाँ से अविनाशी भगवान ब्रह्मा जी के पास गये। देवताओं ने मस्तक झुकाकर ब्रह्मा जी को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर कहा- ‘ब्रह्मन्! पार्वती जी की गोद में बालक रूपधारी एक अद्भुत प्राणी था, जिसे देखकर भी हम लोग पहचान नहीं सके हैं। ‘अतः हम लोग आप से उसके विषय में पूछना चाहते हैं, उस बालक ने बिना युद्ध के खेल ही खेल में इन्द्र सहित हम देवताओं को परास्त कर दिया’। उनकी यह बात सुनकर ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ भगवान ब्रह्मा ने ध्यान करके अमित तेजस्वी बालरूप धारी शंकर को पहचान लिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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