महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 86 श्लोक 1-21

षडशीति (86) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: षडशीति अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद
धृतराष्ट्र का भगवान श्रीकृष्ण की अगवानी करके उन्हें भेंट देने एवं दुःशासन के महल में ठहराने का विचार प्रकट करना
  • धृतराष्ट्र बोले- विदुर! मुझे सूचना मिली है कि भगवान श्रीकृष्ण उपप्लव्य से यहाँ के लिए प्रस्थित हो गए हैं, आज वृकस्थल में ठहरे हैं तथा कल सवेरे ही इस नगर में पहुँच जाएँगे।(1)
  • भगवान जनार्दन आहुकवंशी क्षत्रियों के अधिपति तथा समस्त सात्वतों [1]के अगुआ हैं। उनका हृदय महान है, पराक्रम भी महान है तथा वे महान सत्त्वगुण से सम्पन्न हैं। (2)
  • वे भगवान माधव समृद्धिशाली यादव गणराष्ट्र के पोषक तथा संरक्षक हैं। पितामह के भी जनक होने के कारण वे तीनों लोकों के प्रपितामह हैं। (3)
  • जैसे आदित्य, वसु तथा रुद्रगण बृहस्पति की बुद्धि का आश्रय लेते हैं, उसी प्रकार वृष्णि और अंधकवंश के लोग प्रसन्नचित्त होकर श्रीकृष्ण की ही बुद्धि के आश्रित रहते हैं। (4)
  • धर्मज्ञ विदुर! मैं तुम्हारे सामने ही उन महात्मा श्रीकृष्ण को जो पूजा दूंगा, उसे बताता हूँ, सुनो (5)
  • एक रंग के, सुदृढ़ अंगों वाले तथा बाह्लिक देश में उत्पन्न हुए उत्तम जाति के चार-चार घोड़ों से जुते हुए सोलह सुवर्णमय रथ मैं श्रीकृष्ण को भेंट करूँगा। (6)
  • कुरुनंदन! इनके सिवा मैं उन्हें आठ मतवाले हाथी भी दूँगा, जिनके मस्तकों से सदा मद चूता रहता है, जिनके दाँत ईषादंड के समान प्रतीत होते हैं तथा जो शत्रुओं पर प्रहार करने में कुशल हैं और जिन आठों गजराजों में से प्रत्येक के साथ आठ-आठ सेवक हैं। (7)
  • साथ ही मैं उन्हें सुवर्ण की-सी कांतीवाली परम सुंदरी सौ ऐसी दासियाँ दूँगा, जिनसे किसी संतान की उत्पत्ति नहीं हुई है। दासियों के ही बराबर दास भी दूँगा।(8)
  • मेरे यहाँ पर्वतीयों से भेंट में मिले हुए भेड़ के ऊन से बने हुए असंख्य कंबल हैं, जो स्पर्श करने पर बड़े मुलायम जान पड़ते हैं; उनमें से अठारह हजार कंबल भी मैं श्रीकृष्ण को उपहार में दूँगा। (9)
  • चीन देश में उत्पन्न हुए सहसत्रों मृगचर्म मेरे भंडार में सुरक्षित हैं, उनमें से श्रीकृष्ण जितना लेना चाहेंगे, उतने सबके सब उन्हें अर्पित कर दूँगा। (10)
  • मेरे पास यह एक अत्यंत तेजस्वी निर्मल मणि है, जो दिन तथा रात में भी प्रकाशित होती है, इसे भी मैं श्रीकृष्ण को ही दूँगा, क्योंकि वे ही इसके योग्य हैं। (11)
  • मेरे पास खच्चरियों से युक्त एक रथ है, जो एक दिन में चौदह योजन तक चला जाता है, वह भी मैं उन्हीं को अर्पित करूँगा। (12)
  • श्रीकृष्ण के साथ जितने वाहन और जितने सेवक आएंगे उन सब को औसत से आठ गुणा भोजन मैं प्रत्येक समय देता रहूँगा। (13)
  • दुर्योधन के सिवा मेरे सभी पुत्र और पौत्र वस्त्राभूषणों से विभूषित हो स्वच्छ-सुंदर रथों पर बैठकर श्रीकृष्ण की अगवानी के लिए जाएँगे। (14)
  • सहस्रों सुंदरी वारांगनाएँ सुंदर वेषभूषा से सज-धजकर महाभाग केशव की अगवानी के लिए पैदल ही जाएंगी। (15)
  • जनार्दन का दर्शन करने के लिए इस नगर से जो भी कोई पर्दा न रखने वाली कल्याणमयी कन्याएँ जाना चाहेंगी, वे जा सकेंगी। (16)
  • जैसे प्रजा सूर्यदेव का दर्शन करती है, उसी प्रकार स्त्री, पुरुष और बालकों सहित यह सारा नगर महात्मा मधुसूदन का दर्शन करे। (17)
  • 'नगर में चारों ओर विशाल ध्वजाएँ और पताकाएँ फहरा दी जाएँ और श्रीकृष्ण जिस पर आ रहे हों, उस राजपथ पर जल का छिड़काव करके उसे धूल रहित बना दिया जाये' इस प्रकार राजा धृतराष्ट्र ने आदेश दिया। (18)
  • इतना कहकर वे फिर बोले- दुःशासन का महल राजा दुर्योधन के राजभवन से भी श्रेष्ठ है। उसी को आज झाड़-पोंछकर सब प्रकार से सुसज्जित कर दिया जाये। (19)
  • यह महल सुंदर आकार वाले भवनों से सुशोभित, कलयाणकारी, रमणीय, सभी ऋतुओं के वैभव से सम्पन्न तथा अनंत धनराशि से समृद्ध है। (20)
  • मेरे और दुर्योधन के पास जो भी रत्न हैं, वे सब इसी घर में रखे हैं। भगवान श्रीकृष्ण उनमें से जो-जो रत्न लेना चाहें, वे सब उन्हें निःसन्देह दे दिये जाएँ।(21)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में मार्ग में धृतराष्ट्र वाक्य विषयक छियासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यादवों

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