चतु:षष्टितम (64) अध्याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)
महाभारत: सभा पर्व: चतु:षष्टितम अध्याय: श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद
दुर्योधन बोल- विदुर! तुम सदा हमारे शत्रुओं के ही सूर्यवश की डींग हाँकते रहते हो और हम सभी धृतराष्ट्र के पुत्रों की निन्दा किया करते हो। तुम किसके प्रेमी हो, यह हम जानते हैं, हमें मूर्ख समझकर तुम सदा हमारा अपमान ही करते रहते हो। जो दूसरों को चाहने वाला है, यह मनुष्य पहचान में आ जाता है; क्योंकि वह जिसके प्रति द्वेष होता है, उसकी निन्दा और जिसके प्रति राग होता है, उसकी प्रशंसा में संलग्न रहता है। तुम्हारा हृदय हमारे प्रति किस प्रकार द्वेष से परिपूर्ण है, यह बात तुम्हारी जिह्वा प्रकट कर देती है। तुम अपने से श्रेष्ठ पुरुषों के प्रति इस प्रकार हृदय का द्वेष न प्रकट करो। हमारे लिये तुम गोद में बैठे साँप के समान हो और बिलाव की भाँति पालने वाले का ही गला घोंट रहे हो। तुम स्वामि-द्रोह रखते हो, फिर भी तुम्हें लोग पापी नहीं कहते? विदुर! तुम इस पाप से डरते क्यों नहीं? हमने शत्रुओं को जीतकर (धनरूप) महान् फल प्राप्त किया है। विदुर! तुम हमसे यहाँ कटु वचन न बोलो। तुम शत्रुओं के साथ मेल करके प्रसन्न हो रहे हो और हमारे साथ मेल करके भी अब (हमारे शत्रुओं की प्रशंसा करके) हम लोगों के बार-बार द्वेष के पात्र बन रहे हो अक्षम्य कटुवचन बोलने वाला मनुष्य शत्रु बन जाता है। शत्रु की प्रशंसा करते समय भी लोग अपने गूढ़ मनोभाव को छिपाये रखते हैं। निर्लज्ज विदुर! तुम भी उसी नीति का आश्रय लेकर चुप क्यों नहीं रहते? हमारे काम में बाधा क्यों डालते हो? तुम जो मन में आता है, वही बक जाते हो। विदुर! तुम हम लोगों का अपमान न करो, तुम्हारे इस मन को जान चुके हैं। तुम बड़े बूढ़ों के निकट बैठकर बुद्धि सीखो। अपने पूर्वार्जित यश की रक्षा करो। दूसरों के कामों में हस्तक्षेप न करो। विदुर! 'मैं ही कर्ता-धर्मा हूँ' ऐसा न समझो और हमें प्रतिदिन कड़वी बातें न कहो। मैं अपने हित के सम्बन्ध में तुमसे कोई सलाह नहीं पूछता हूँ। तुम्हारा भला हो। हम तुम्हारी कठोर बातें सहते चले जाते हैं, इसलिये हम क्षमाशीलों को तुम अपने वचनरूपी बाणों से छेदो मत। देखों, इस जगत् का शासन करने वाला एक ही है, दूसरा नहीं। वही शासक माता के गर्भ में सोये हुए शिशु पर भी शासन करता है; उसी के द्वारा मैं भी अनुशासित हूँ। अत: जैसे जल स्वाभाविक ही नीचे की ओर जाता है, वैसे ही वह जगन्नियन्ता मुझे जिस काम में लगाता है, मैं वैसे ही उसी काम में लगता हूँ। जिनसे प्रेरित होकर मनुष्य अपने सिर से पर्वत को विदीर्ण करना चाहता है- अर्थात् पत्थर पर सिर पटककर स्वयं ही अपने को पीड़ा देता है तथा जिनकी प्रेरणा से मनुष्य सर्प को भी दूध पिलाकर पालता है, उसी सर्वनियन्ता की बुद्धि समस्त जगत् के कार्यों का अनुशासन करती है। जो बलपूर्वक किसी पर अपना उपदेश लादता है, वह अपने उस व्यवहार के द्वारा उसे अपना शत्रु बना लेता है। इस प्रकार मित्रता का अनुसरण करने वाले मनुष्य को विद्वान् पुरुष त्याग दे। भारत! जो पहले कपूर में आग लगाकर उसके प्रज्वलित हो जाने पर देर तक उसे बुझाने के लिये नहीं दौड़ता, वह कहीं उसकी बची हुई राख भी नहीं पाता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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