महाभारत महाप्रस्‍थानिक पर्व अध्याय 3 श्लोक 1-16

तृतीय (3) अध्‍याय: महाप्रस्‍थानिक पर्व

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महाभारत: महाप्रस्‍थानिक पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर का इन्‍द्र और धर्म आदि के साथ वार्तालाप, युधिष्ठिर का अपने धर्म में दृढ़ रहना तथा सदेह स्‍वर्ग में जाना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर आकाश और पृथ्‍वी को सब ओर से प्रति‍ध्‍वनित करते हुए देवराज इन्द्र रथ के साथ युधिष्ठिर के पास आ पहुँचे और उनसे बोले- "कुन्तीनन्दन! तुम इस रथ पर सवार हो जाओ।"

अपने भाइयों को धराशायी हुआ देख धर्मराज युधिष्ठिर शोक से संतप्‍त हो इन्द्र से इस प्रकार बोले- "देवेश्वर! मेरे भाई मार्ग में गिरे पड़े हैं। वे भी मेरे साथ चलें, इसकी व्यवस्था कीजिये; क्योंकि मैं भाइयों के बिना स्वर्ग में जाना नहीं चाहता। पुरन्दर! राजकुमारी द्रौपदी सुकुमारी है। वह सुख पाने के योग्‍य है। वह भी हम लोगों के साथ चले, इसकी अनुमति दीजिये।"

इन्द्र ने कहा- "भरतश्रेष्ठ! तुम्हारे सभी भाई तुमसे पहले ही स्वर्ग में पहुँच गये हैं। उनके साथ द्रौपदी भी है। वहाँ चलने पर वे सब तुम्हें मिलेंगे। भरतभूषण! वे मानव शरीर का परित्याग करके स्वर्ग में गये हैं; किंतु तुम इसी शरीर से वहाँ चलोगे, इसमें संशय नहीं है।"

युधिष्ठिर बोले- "भूत और वर्तमान के स्वामी देवराज! यह कुत्ता मेरा बड़ा भक्त है। इसने सदा ही मेरा साथ दिया है; अत: यह भी मेरे साथ चले, ऐसी आज्ञा दीजिये; क्योंकि मेरी बुद्धि में निष्ठुरता का अभाव है।" इन्द्र ने कहा- "राजन! तुम्हें अमरता, मेरी समानता, पूर्ण लक्ष्मी और बहुत बड़ी सिद्धि प्राप्‍त हुई है; अत: इस कुत्ते को छोड़ो और मेरे साथ चलो। इसमें कोई कठोरता नहीं है।"

युधिष्ठिर बोले- "सहस्रनेत्रधारी देवराज! किसी आर्य पुरुष के द्वारा निम्न श्रेणी का काम होना अत्यन्त कठिन है। मुझे ऐसी लक्ष्मी की प्राप्ति कभी न हो, जिसके लिये भक्तजन का त्याग करना पड़े।"

इन्द्र ने कहा- "धर्मराज! कुत्ता रखने वालों के लिये स्वर्गलोक में स्थान नहीं है। उनके यज्ञ करने और कुआँ, बावड़ी आदि बनवाने का जो पुण्‍य होता है, उसे क्रोधवश नामक राक्षस हर लेते हैं; इसलिये सोच-विचार कर काम करो। छोड़ दो इस कुत्ते को। ऐसा करने में कोई निर्दयता नहीं है।"

युधिष्ठिर बोले- "महेन्द्र! भक्त का त्याग करने से जो पाप होता है, उसका अन्त कभी नहीं होता। ऐसा महात्मा पुरुष कहते हैं। संसार में भक्त का त्याग ब्रह्महत्या के समान माना गया है; अत: मैं अपने सुख के लिये कभी किसी तरह भी आज इस कुत्ते का त्याग नहीं करूँगा। जो डरा हुआ हो, भक्त हो, मेरा दूसरा कोई सहारा नहीं है- ऐसा कहते हुए आर्तभाव से शरण में आया हो, अपनी रक्षा में असमर्थ-दुर्बल हो और अपने प्राण बचाना चाहता हो, ऐसे पुरुष को प्राण जाने पर भी मैं नहीं छोड़ सकता; यह मेरा सदा का व्रत है।"

इन्द्र ने कहा- "वीरवर! मनुष्य जो कुछ दान, यज्ञ, स्वाध्‍याय और हवन आदि पुण्‍यकर्म करता है, उस पर यदि कुत्ते की दृष्टि भी पड़ जाये तो उसके फल को क्रोधवश नामक राक्षस हर ले जाते हैं; इसलिये इस कुत्ते का त्याग कर दो। कुत्ते को त्याग देने से ही तुम देवलोक में पहुँच सकोगे। वीर! तुमने अपने भाइयों तथा प्‍यारी पत्नी द्रौपदी का परित्याग करके अपने किये हुए पुण्‍यकर्मों के फलस्वरूप देवलोक को प्राप्‍त किया है। फिर तुम इस कुत्ते को क्यों नहीं त्याग देते? सब कुछ छोड़कर अब कुत्ते के मोह में कैसे पड़ गये?"

युधिष्ठिर ने कहा- "भगवन! संसार में यह निश्चित बात है कि मरे हुए मनुष्यों के साथ न तो किसी का मेल होता है, न विरोध ही। द्रौपदी तथा अपने भाइयों को जीवित करना मेरे वश की बात नहीं है; अत: मर जाने पर मैंने उनका त्याग किया है, जीवितावस्था में नहीं। शरण में आये हुए को भय देना, स्त्री का वध करना, ब्राह्मण का धन लूटना और मित्रों के साथ द्रोह करना- ये चार अधर्म एक और भक्त का त्याग दूसरी ओर हो तो मेरी समझ में यह अकेला ही उन चारों के बराबर है।"

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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