महाभारत वन पर्व अध्याय 240 श्लोक 1-21

चत्‍वारिंशदधिकद्विशततमम (240) अध्‍याय: वन पर्व (घोषयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: चत्‍वारिंशदधिकद्विशततमम अध्‍याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद


दुर्योधन का सेना‍ सहित वन में जाकर गौओं की देखभाल करना और उसके सैनिकों एवं गन्‍धर्वों में परस्‍पर कटु संवाद

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्‍तर राजा दुर्योधन जहाँ-तहाँ वन में पड़ाव डालता हुआ, उन घोषों (गोशालाओं) के पास पहुँच गया और वहाँ उसने अपनी छावनी डाली। उसके साथ गये हुए लोगों ने भी उस सर्वगुणसम्‍पन्‍न, रमणीय, सुपरिचित, सजल तथा सघन वृक्षावलियों से युक्‍त प्रदेश में अपने डेरे डाल दिये। इसी प्रकार दुर्योधन के डेरे के पास ही कर्ण, शकुनि तथा दु:शासन आदि सब भाइयों के लिये पृथक्-पृथक् बहुत से खेमे पड़ गये। (रहने की व्‍यवस्‍था ठीक हो जाने पर) राजा दुर्योधन ने अपनी सैकड़ों एवं हजारों गौओं का निरीक्षण करना आरम्‍भ किया। उन सब पर संख्‍या और निशानी डलवा दी। फिर बछड़ों पर भी संख्‍या और निशानी डलवायी और उनमें से जो नाथने योग्‍य थे, उन सब की गणना कराकर उन पर पहचान डाल दी। जिन गौओं के बछड़े बहुत छोटे थे, उनकी भी अलग गणना करवायी।

इस प्रकार जांच-पड़ताल का काम पूरा करके कुरुनन्‍दन दुर्योधन ने तीन साल के बछडों की पृथक् गणना करवायी और स्‍मरण के लिये सब कुछ लिखकर वह बड़ी प्रसन्नता के साथ ग्‍वालों से घिरकर उस वन में विहार करने लगा। वे समस्‍त पुरवासी और सहस्रों की संख्‍या में आये हुए सैनिक उस वन में अपनी-अपनी रुचि के अनुसार देवताओं के समान क्रीड़ा करने लगे। तदनन्‍तर नृत्‍य और वादन की कला में कुशल कुछ गवैये गोप तथा गहने-कपड़ों से सजी हुई उनकी कन्‍याएं दुर्योधन के समीप आयीं। अपनी स्त्रियों के साथ राजा दुर्योधन उनको देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और उन्‍हें बहुत-सा धन दिया तथा यथायोग्‍य नाना प्रकार की खाने-पीने की वस्‍तुएं अर्पित कीं। तदनन्‍तर वे सब लोग तरक्षुओं (जरखों), जंगली भैंसों, गवयों, रीछों और शूकरों एवं अन्‍य जंगली हिंसक पशुओं का सब ओर से शिकार करने लगे। उन्‍होंने वन के रमणीय प्रदेशों में बहुत से हाथियों को अपने बाणों से विदीर्ण करके अनेकानेक हिंसक पशुओं को पकड़ लिया।

भरतनन्‍दन! दुर्योधन अपने साथियों सहित दूध आदि गोरसों का उपयोग करता और भाँति-भाँति के भोग भोगता हुआ वहां के रमणीय वनों और उपवनों की शोभा देखने लगा। उनमें मतवाले भ्रमर गुंजार करते थे और मयूरों की मधुर वाणी सब ओर गूंज रही थी। इस प्रकार क्रमश: आगे बढ़ता हुआ वह परम पवित्र द्वैतवन नामक सरोवर के समीप जा पहुँचा। वहाँ मधुमत्‍त भ्रमर कमल पुष्‍पों का रस ले रहे थे। मयूरों की मधुर वाणी से वह सारा प्रदेश व्‍याप्‍त हो रहा था। सप्‍तच्‍छन्‍द (छितवन) के वृक्षों से वह सरोवर आच्‍छादित-सा जान पड़ता था। उसके तटों पर मौलसिरी और नाग केसर के वृक्ष शोभा पा रहे थे। उसी सरोवर के तट पर वज्रधारी इन्द्र के समान उत्‍तम ऐश्‍वर्य से सम्‍पन्‍न बुद्धिमान् राजा युधिष्ठिर अपनी धर्मपत्री महारानी द्रौपदी के साथ साद्यस्क (एक दिन में पूर्ण होने वाले) राजर्षि यज्ञ का अनुष्‍ठान कर रहे थे।

कुरुश्रेष्‍ठ जनमेजय! उस यज्ञ में उनके साथ बहुत-से वनवासी विद्वान ब्राह्मण भी थे। राजा वन में सुलभ होने वाली सामग्री द्वारा दिव्‍य विधि से यज्ञ कर रहे थे। वे उसी सरोवर के आस-पास कुटी बनाकर रहते थे। भारत! तदनन्‍तर दुर्योधन ने अपने सहस्रों सेवकों को आज्ञा दी- ‘तुम लोग बहुत से क्रीड़ामण्‍डप तैयार करो’। आज्ञाकारी सेवक दुर्योधन से ‘तथास्‍तु' कहकर क्रीड़ाभवन बनाने की इच्‍छा से द्वैतवन के सरोवर के निकट गये। दुर्योधन का सेनानायक द्वैतवन सरोवर के अत्‍यन्‍त निकट तक पहुँच गया था, उस वन के द्वार पर पैर रखते ही उसको गन्‍धर्वों ने रोक दिया। राजन्! वहाँ गन्‍धर्वराज चित्रसेन पहले से ही अपने सेवक गणों के साथ कुबेरभवन से आये हुए थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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