अग्निदेव

अग्निदेव जी

अग्निदेव हिन्दू धर्म में मान्य प्रधान देवताओं में से एक हैं। ये यज्ञ के प्रधान अंग हैं। सर्वत्र प्रकाश करने वाले एवं सभी पुरुषार्थों को ये प्रदान करने वाले हैं। सभी रत्न अग्नि से उत्पन्न होते हैं और सभी रत्नों को यही धारण करते हैं।

विश्व-साहित्य में प्रथम

वेदों में सर्वप्रथम ऋग्वेद का नाम आता है और उसमें प्रथम शब्द अग्नि ही प्राप्त होता है। अत: यह कहा जा सकता है कि विश्व-साहित्य का प्रथम शब्द अग्नि ही है। ऐतरेय ब्राह्मण आदि ब्राह्मण ग्रन्थों में यह बार-बार कहा गया है कि देवताओं में प्रथम स्थान अग्नि का है। आचार्य यास्क और सायणाचार्य ऋग्वेद के प्रारम्भ में अग्नि की स्तुति का कारण यह बतलाते हैं कि अग्नि ही देवताओं में अग्रणी हैं और सबसे आगे-आगे चलते हैं। युद्ध में सेनापति का काम करते हैं। इन्हीं को आगे कर युद्ध करके देवताओं ने असुरों को परास्त किया था।

पुराण उल्लेख

पुराणों के अनुसार इनकी पत्नी स्वाहा है। ये सब देवताओं के मुख हैं और इनमें जो आहुति दी जाती है, वह इन्हीं के द्वारा देवताओं तक पहुँचती है। केवल ऋग्वेद में अग्नि के दो सौ सूक्त प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में भी इनकी स्तुतियाँ प्राप्त होती हैं। ऋग्वेद के प्रथम सूक्त में अग्नि की प्रार्थना करते हुए विश्वामित्र के पुत्र मधुच्छन्दा कहते हैं कि मैं सर्वप्रथम अग्नि की स्तुति करता हूँ, जो सभी यज्ञों के पुरोहित कहे गये हैं। पुरोहित राजा का सर्वप्रथम आचार्य होता है और वह उसके समस्त अभीष्ट को सिद्ध करता है। उसी प्रकार भी यजमान की समस्त कामनाओं को पूर्ण करते हैं।

जिह्वाएँ

अग्निदेव की सात जिह्वाएँ बतायी गयी हैं। उन जिह्वाओं के नाम-

  1. काली
  2. कराली
  3. मनोजवा
  4. सुलोहिता
  5. धूम्रवर्णी
  6. स्फुलिंगी
  7. विश्वरुचि


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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