अम्बरीष

Disamb2.jpg अम्बरीष एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- अम्बरीष (बहुविकल्पी)

अम्बरीष इक्ष्वाकुवंशीय परमवीर राजा थे। यह भगीरथ के प्रपौत्र, वैवस्वत मनु के पौत्र और नाभाग के पुत्र थे। राजा अम्बरीष की कथा 'रामायण', 'महाभारत' और पुराणों में विस्तार से वर्णित है। उन्होंने दस हज़ार राजाओं को पराजित करके ख्याति अर्जित की थी। वे भगवान विष्णु परम भक्त और अपना अधिकांश समय धार्मिक अनुष्ठानों में लगाने वाले धार्मिक व्यक्ति थे।

दुस्‍कर: को नु साधूनां दुस्‍त्‍यजो वा महात्‍मनाम्।
यै: संग्रहीतो भगवान् सात्‍वतामुषभो हरि:।।

अर्थात् "जिन लोगों ने सत्‍वगुणियों के परमाराध्‍य श्रीहरि को हृदय में धारण कर लिया है, उन महात्‍मा साधुओं के लिए भला कौन-सा त्‍याग है, जिसे वे नहीं कर सकते। वे सब कुछ करने में समर्थ हैं और सब कुछ त्‍यागने में भी समर्थ हैं।"

सम्‍पूर्ण पृथ्‍वी के स्‍वामी

अम्बरीष सप्तद्वीपवती सम्‍पूर्ण पृथ्‍वी के स्‍वामी थे और उनकी सम्‍पत्ति कभी समाप्‍त होने वाली नहीं थी। उनके ऐश्‍वर्य की संसार में कोई तुलना न थी। कोई दरिद्र मनुष्‍य भोगों के अभाव में वैराग्‍यवान बन जाए, यह तो सरल है; किन्‍तु धन-दौलत होने पर विलास भोग की पूरी सामग्री प्राप्‍त रहते वैराग्‍यवान होना, विषयों से दूर रहना, महापुरुषों के ही वश का है और यह भगवान की कृपा से ही होता है। थोड़ी सम्‍पत्ति और साधारण अधिकार भी मनुष्‍य को मदान्‍ध बना देता है, किन्‍तु जो आश्रय ले लेते हैं, जो उन मायापति श्रीहरि की रूप माधुरी का सुधास्‍वाद कर लेते हैं, मोहन की मोहिनी जिनके प्राण मोहित कर लेती है, माया का ओछापन उन्‍हें लुभाने में असमर्थ हो जाता है। वे तो जल में कमल की भाँति सम्‍पत्ति एवं ऐश्‍वर्य के मध्‍य भी निर्लिप्‍त ही रहते हैं। वैवस्वत मनु के प्रपौत्र तथा राजर्षि नाभाग के पुत्र अम्‍बरीष को अपना ऐश्‍वर्य स्‍वप्‍न के समान असत जान पड़ता था। वे जानते थे कि सम्‍पत्ति मिलने से मोह होता है और बुद्धि मारी जाती है। भगवान वासुदेव के भक्त को पूरा विश्‍व ही मिट्टी के ढेलों सा लगता है। विश्‍व में तथा उसके भोगों में नितान्‍त अनासक्‍त अम्‍बरीष जी ने अपना सारा जीवन परमात्‍मा के पावन पाद पद्मों में ही लगा दिया था।

श्रीकृष्ण का चिन्तन-मनन

राजा अम्‍बरीष ने अपने मन को भगवान श्रीकृष्‍ण के चरण चिन्‍तन में, वाणी को उनके गुणगान में, हाथों को श्रीहरि के मंदिर को झाड़ने बुहारने में, कानों को अच्‍युत के पवित्र चरित सुनने में, नेत्रों को भगवन्‍मूर्ति के दर्शन में, अंगों को भगवत्‍सेवकों के स्‍पर्श में, नासिका को भगवान के चरणों पर चढ़ी तुलसी की गन्‍ध लेने में, जिव्‍हा को भगवत्‍प्रसाद का रस लेने में, पैरों को श्रीनारायण के प‍वित्र स्‍थानों में जाने में और मस्‍तक को हृषीकेश के चरणों की वन्‍दना में लगा रखा था। दूसरे संसारी लोगों की भाँति वे विषय-भोगों में लिप्‍त नहीं थे। श्रीहरिे के प्रसाद रूप में ही वे भागों को स्‍वीकार करते थे। भगवान के भक्‍तों को अर्पण करके उनकी प्रसन्‍नता के लिए ही भोगों को ग्रहण करते थे। अपने समस्‍त कर्म यज्ञपुरुष परमात्‍मा को अर्पण करके, सबमें वही एक प्रभु आत्‍मरूप से विराजमान हैं- ऐसा दृढ़ निश्‍चय रखकर भगवदभक्‍त ब्राह्मणों की बतलायी रीति से वे न्‍यायपूर्वक प्रजापालन करते थे।

निष्‍काम भाव से यज्ञों का राजा अम्‍बरीष ने अनुष्‍ठान किया था, विविध वस्‍तुओं को प्रचुर दान किया और अनन्‍त पुण्‍य-धर्म किये। इन सबसे वे भगवान को ही प्रसन्‍न करना चाहते थे। स्‍वर्गसुख तो उनकी दृष्टि में तुच्‍छ था। अपने हृदय-सिंहासन पर वे आनन्‍दकन्‍द गोविन्‍द को नित्‍य विराजमान देखते थे। उनको भगवत्‍प्रेम की दिव्‍य माधुरी प्राप्‍त थी। गृह, स्‍त्री, पुत्र, स्‍वजन, गज, रथ, घोडे़, रत्‍न, वस्‍त्र, आभरण आदि कभी न घटने वाला अक्षय भण्‍डार और स्‍वर्ग के भोग उनको नीरस, स्‍वप्न के समान असत लगते थे। उनका चित्त सदा भगवान में ही लगा रहता था।

सुदर्शन चक्र द्वारा राज्य की रक्षा

जैसा राजा वैसी प्रजा। महाराज अम्‍बरीष के प्रजाजन, राजकर्मचारी, सभी लोग भगवान के पवित्र चरित सुनने, भगवान के पूजन-ध्‍यान में ही अपना समय लगाते थे। भक्‍तवत्‍सल भगवान ने देखा कि मेरे ये भक्त तो मेरे चि‍न्‍तन में ही लगे रहते हैं, तो भक्‍तों के योगक्षेम की रक्षा करने वाले प्रभु ने अपने सुदर्शन चक्र को अम्‍बरीष तथा उनके राज्‍य की रक्षा में नियुक्‍त कर‍ दिया। जब मनुष्‍य अपना सब भार उन सर्वेश्‍वर पर छोड़कर उनका हो जाता हैं, तब‍ वे दयामय उसके योगक्षेम का दायित्‍व अपने ऊपर लेकर उसे सर्वथा निश्चिन्‍त कर देते हैं। चक्र अम्‍बरीष के द्वार पर रहकर राज्‍य की रक्षा करने लगा।

पौराणिक कथा

राजा अम्‍बरीष ने एक बार अपनी पत्‍नी के साथ श्रीकृष्ण को प्रसन्‍न करने के लिए वर्ष की सभी एका‍दशियों के व्रत का नियम किया। वर्ष पूरा होने पर पारणे के दिन उन्‍होंने धूमधाम से भगवान की पूजा की। ब्राह्मणों को गोदान किया। यह सब करके जब वे पारण करने जा रहे थे, तभी महर्षि दुर्वासा शिष्‍यों सहित पधारे। राजा ने उनका सत्‍कार किया और उनसे भोजन करने की प्रार्थना की। दुर्वासा जी ने राजा की प्रार्थना स्‍वीकार कर ली और स्नान करने यमुना तट पर चले गये। द्वादशी में केवल एक घड़ी शेष थी। द्वादशी में पारण न करने से व्रत भंग होता। उधर दुर्वासा जी आयेंगे कब, यह पता नहीं था। अतिथि से पहले भोजन करना अनुचित था। ब्राह्मणों से व्‍यवस्‍था लेकर राजा ने भगवान के चरणोदक को लेकर पारण कर लिया और भोजन के‍ लिए ऋषि की प्रतिक्षा करने लगे।

महर्षि दुर्वासा ने स्नान करके लौटते ही तपोबल से राजा के पारण करने की बात जान ली। वे अत्‍यन्‍त क्रोधित हुए कि मेरे भोजन के पहले इसने क्‍यों पारण किया। उन्‍होंने मस्‍तक से एक जटा उखाड़ ली और उसे जोर से पृथ्‍वी पर पटक दिया। उससे कालाग्नि के समान 'कृत्‍या' नाम की भयानक राक्षसी निकली। वह राक्षसी तलवार लेकर राजा को मारने दौड़ी। राजा जहाँ के तहां स्थिर खड़े रहे। उन्‍हें तनिक भी भय नहीं लगा। सर्वत्र सब रूपों में भगवान ही हैं। यह देखने वाला भगवान का भक्त भला, कहीं अपने ही दयामय स्‍वामी से डर सकता है। अम्‍बरीष को तो कृत्‍या भी भगवान ही दीखती थी। परंतु भगवान का सुदर्शन चक्र तो भगवान की आज्ञा से पहले से ही राजा की रक्षा में नियुक्‍त था। उसने पलक मारते कृत्‍या को भष्‍म कर दिया और दुर्वासा की भी खबर लेने उनकी ओर दौड़ा। अपनी कृत्‍या को इस प्रकार नष्‍ट होते और ज्‍वालामय विकराल चक्र को अपनी ओर आते देखकर दुर्वासा प्राण लेकर भागे। वे दसों दिशाओं में, पर्वतों की गुफ़ाओं में, समुद्र में, जहाँ-तहाँ छिपने को गये, चक्र वहीं उनका पीछा करता गया। आकाश-पाताल में सब‍ कहीं वे गये। इन्‍द्रादि लोकपाल तो उन्‍हें क्‍या शरण देते, स्‍वयं ब्रह्मा जी और शंकर जी ने भी आश्रय नहीं दिया। दया करके शिवजी ने उनको भगवान के ही पास जाने को कहा। अन्‍त में वे वैकुण्‍ठ गये और भगवान विष्‍णु के चरणों में गिर पड़े। दुर्वासा ने कहा- "प्रभो ! आपका नाम लेने से नारकी जीव नरक से भी छूट जाते हैं। अत: आप मेरी रक्षा करें। मैंने आपके प्रभाव को न जानकर आपके भक्त का अपराध किया, इसलिए आप मुझे क्षमा करें।"

भगवान अपनी छाती पर भृगु की लात तो सह सकते हैं, अपना अपराध वे कभी मन में ही नहीं लेते, पर भक्‍त का अपराध वे क्षमा नहीं कर सकते प्रभु ने कहा- महर्षि ! मैं स्‍वतंत्र नहीं हूँ। मैं तो भक्‍तों के पराधीन हूँ। साधु भक्‍तों ने मेरे हृदय को जीत लिया है। साधुजन मेरे हृदय हैं और मैं उनका हृदय हूँ। मुझे छोड़कर वे और कुछ नहीं जानता। साधु भक्‍तों को छोड़कर मैं अपने इस शरीर को भी नहीं चाहता और इन लक्ष्‍मी को जिनकी एकमात्र गति मैं ही हूं, उन्‍हें भी नहीं चाहता। जो भक्‍त स्‍त्री-पुत्र, घर-परिवार, धन-प्राण, इहलोक-परलोक सबको त्‍यागकरमेरी शरण आया है, भला मैं उसे कैसे छोड़ सकता हूँ।जैसे पतिव्रता स्‍त्री पति को अपनी सेवा से वश में कर लेती है, वैसे ही समदर्शी भक्‍तजन मुझ्‍से चित्‍त लगाकर मुझे भी अपने वश में कल लेते हैं। नश्‍वर स्‍वार्गादि तो चर्चा ही क्‍या, मेरे भक्‍त ऐसे मेरी सेवा के आगे मुक्ति को भी स्‍वीकार नहीं करते। ऐसे भक्‍तों के मैं सर्वथा अधीन हूँ। अतएव ऋषिवर ! आप उन महाभाग नाभागतनय के ही पास जाएं। वहीं आपको शान्ति मिलेगी।

इधर राजा अम्‍बरीष बहुत ही चिन्तित थे। उन्‍हें लगता था कि मेरे ही कारण दुर्वासा जी को मृत्‍यु भय से ग्रस्‍त होकर भूखे ही भागना पड़ा। ऐसी अवस्‍था में मेरे लिए भोजन करना कदापि उचित नहीं है। अत: वे केवल जल पीकर ऋषि के लौटने की पूरे एक वर्ष तक प्र‍तीक्षा करते रहे। वर्ष भर के बाद दुर्वासा जी जैसे भागे थे, वैसे ही भयभीत दौड़ते हुए आए और उन्‍होंने राजा का पैर पकड़ लिया। ब्राह्मण के द्वारा पैर पकड़े जाने से राजा को बड़ा संकोच हुआ। उन्‍होंने स्‍तुति करके सुदर्शन को शान्‍त किया। महर्षि दुर्वासा मृत्‍यु के भय से छूटे। सुदर्शन का अत्‍युग्र ताप, जो उन्‍हें जला रहा था, शान्‍त हुआ। अब प्रसन्‍न होकर कहने लगे, "आज मैंने भगवान के दासों का महत्‍व देखा। राजन मैंने तुम्‍हारा इतना अपराध किया था, पर तुम मेरा कल्‍याण ही चाहते हो। जिन प्रभु का नाम लेने से ही जीव समस्‍त पापों से छूट जाता है, उन तीर्थपाद श्रीहरि के भक्‍तों के लिए कुछ भी कार्य शेष नहीं रह जाता। राजन तुम बड़े दयालु हो। मेरा अपराध न देखकर तुमने मेरी प्राण रक्षा की।" अम्‍बरीष के मन में ऋषि के वाक्‍यों से कोई अभिमान नहीं आया। उन्‍होंने इसको भगवान की कृपा समझा। महर्षि के चरणों में प्रणाम करके बड़े आदर से राजा ने उन्‍हें भोजन कराया। उनके भोजन करके चले जाने पर एक वर्ष पश्‍चात उन्‍होंने वह पवित्र अन्न प्रसाद के रूप से लिया। बहुत काल तक परमात्‍मा में मन लगाकर प्रजापालन करने के पश्‍चात राजा अम्‍बरीष ने अपने पुत्र को राज्‍य सौंप दिया और भगवान वासुदेव में मन लगाकर वन में चले गये। वहाँ भजन तथा तप करते हुए उन्‍होंने भगवान को प्राप्‍त किया।

अन्य कथाएँ
  • राजा अम्‍बरीष की सुंदरी नामक एक सर्वगुण सम्पन्न कन्या थी। एक बार नारद और पर्वत दोनों उस पर मोहित हो गए। वे सहायता के लिए विष्णु के पास गए और दोनों ने उनसे एक-दूसरे को वानरमुख बना देने की प्रार्थना की। भगवान विष्णु ने दोनों की बात मानकर दोनों का मुख वानर का बना दिया। सुन्दरी दोनों के मुख देखकर भयभीत हो गई, किन्तु बाद में उसने देखा कि दोनों के बीच में भगवान विष्णु विराजमान हैं। अत: उसने वरमाला उन्हीं के गले में डाल दी।
  • एक अन्य कथा के अनुसार, एक बार राजा अम्‍बरीष के यज्ञ-पशु को इन्द्र ने चुरा लिया। इस पर ब्राह्मणों ने राय दी कि इस दोष का निवारण मानव बलि से ही हो सकता है। तब राजा ने ऋषि ऋचीक को बहुत-सा धन देकर उनके पुत्र शुन:शेप को यज्ञ-पशु के रूप में ख़रीद लिया। अन्त में विश्वामित्र की सहायता से शुन:शेप के प्राणों की रक्षा हुई।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 02 |


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