वसिष्ठ

संक्षिप्त परिचय
वसिष्ठ
महर्षि वसिष्ठ
जन्म विवरण महर्षि वसिष्ठ की उत्पत्ति का वर्णन पुराणों में विभिन्न रूपों में प्राप्त होता है। कहीं ये ब्रह्मा के मानस पुत्र, कहीं मित्रावरुण के पुत्र और कहीं अग्निपुत्र कहे गये हैं।
विवाह अरुन्धती
रचनाएँ 'योगवासिष्ठ रामायण', 'वसिष्ठ धर्मसूत्र', 'वसिष्ठ संहिता', 'वसिष्ठ पुराण', 'धनुर्वेद' आदि।
अन्य जानकारी राजा निमि के विवाह के बाद वसिष्ठ ने सूर्यवंश की दूसरी शाखाओं का पुरोहित कर्म छोड़कर केवल 'इक्ष्वाकु वंश' के राजगुरु पुरोहित के रूप में कार्य किया। दशरथ से 'पुत्रेष्टि यज्ञ' कराया, जिससे श्रीराम आदि चार पुत्र हुए।

वसिष्ठ वैदिक काल के विख्यात ऋषि थे। उनकी पत्नी का नाम अरुन्धती था। वह योग-वासिष्ठ में श्रीराम के गुरु और राजा दशरथ के राजकुल गुरु भी थे। आदि वसिष्ठ को ब्रह्मा का मानस पुत्र, प्रजापतियों में एक कहा गया है। स्वयंभू मन्वंतर में वे ब्रह्मा की प्राण वायु से उत्पन्न हुए थे। बाद के वैवस्वत मन्वंतर में ब्रह्मा के मानस पुत्र के रूप में अग्नि के मध्य भाग से उत्पन्न हुए।

पौराणिक उल्लेख

वेद, इतिहास, पुराणों में वसिष्ठ के अनगिनत कार्यों का उल्लेख किया गया है। महर्षि वसिष्ठ की उत्पत्ति का वर्णन पुराणों में विभिन्न रूपों में प्राप्त होता है। कहीं ये ब्रह्मा के मानस पुत्र, कहीं मित्रावरुण के पुत्र और कहीं अग्निपुत्र कहे गये हैं। इनकी पत्नी का नाम अरुन्धती देवी था। जब इनके पिता ब्रह्मा ने इन्हें मृत्यु लोक में जाकर सृष्टि का विस्तार करने तथा सूर्यवंश का पौरोहित्य कर्म करने की आज्ञा दी, तब इन्होंने पौरोहित्य कर्म को अत्यन्त निन्दित मानकर उसे करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। ब्रह्मा जी ने इनसे कहा- "इसी वंश में आगे चलकर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम अवतार ग्रहण करेंगे और यह पौरोहित्य कर्म ही तुम्हारी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करेगा।" फिर इन्होंने इस धराधाम पर मानव-शरीर में आना स्वीकार किया। निमि राजा के विवाह के बाद वसिष्ठ ने सूर्यवंश की दूसरी शाखाओं का पुरोहित कर्म छोड़कर केवल इक्ष्वाकु वंश के राजगुरु पुरोहित के रूप में कार्य किया। दशरथ से 'पुत्रेष्टि यज्ञ' कराया जिससे राम आदि चार पुत्र हुए।

वसिष्ठ और विश्वामित्र

महर्षि वसिष्ठ क्षमा की प्रतिमूर्ति थे। एक बार विश्वामित्र उनके अतिथि हुए। महर्षि वसिष्ठ ने नंदिनी के सहयोग से उनका राजोचित सत्कार किया। नंदिनी गाय की अलौकिक क्षमता को देखकर विश्वामित्र के मन में लोभ उत्पन्न हो गया। उन्होंने इस गौ को वसिष्ठ से लेने की इच्छा प्रकट की। नंदिनी वसिष्ठ के लिये आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु महत्त्वपूर्ण साधन थी, अत: इन्होंने उसे देने में असमर्थता व्यक्त की। विश्वामित्र ने नंदिनी को बलपूर्वक ले जाना चाहा। वसिष्ठ के संकेत पर नंदिनी ने अपार सेना की सृष्टि कर दी। विश्वामित्र को अपनी सेना के साथ भाग जाने पर विवश होना पड़ा। द्वेष-भावना से प्रेरित होकर विश्वामित्र ने भगवान शंकर की तपस्या की और उनसे दिव्यास्त्र प्राप्त करके उन्होंने महर्षि वसिष्ठ पर पुन: आक्रमण कर दिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठ के ब्रह्मदण्ड के सामने उनके सारे दिव्यास्त्र विफल हो गये और उन्हें क्षत्रिय बल को धिक्कार कर ब्राह्मणत्व लाभी के लिये तपस्या हेतु वन जाना पड़ा।

विश्वामित्र की अपूर्व तपस्या से सभी लोग चमत्कृत हो गये। सब लोगों ने उन्हें ब्रह्मर्षि मान लिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठ के ब्रह्मर्षि कहे बिना वे ब्रह्मर्षि नहीं कहला सकते थे। वसिष्ठ विश्वामित्र के बीच के संघर्ष की कथाएं सुविदित हैं। वसिष्ठ क्षत्रिय राजा विश्वामित्र को 'राजर्षि' कहकर सम्बोधित करते थे। विश्वामित्र की इच्छा थी कि वसिष्ठ उन्हें 'महर्षि' कहकर सम्बोधित करें। एक बार रात में छिपकर विश्वामित्र वसिष्ठ को मारने के लिए आये। एकांत में वसिष्ठ और अरुंधती के बीच हो रही बात उन्होंने सुनी। वसिष्ठ कह रहे थे- "अहा, ऐसा पूर्णिमा के चन्द्रमा समान निर्मल तप तो कठोर तपस्वी विश्वामित्र के अतिरिक्त भला किसका हो सकता है? उनके जैसा इस समय दूसरा कोई तपस्वी नहीं।" एकांत में शत्रु की प्रशंसा करने वाले महापुरुष के प्रति द्वेष रखने के कारण विश्वामित्र को पश्चाताप हुआ। शस्त्र हाथ से फेंककर वे वसिष्ठ के चरणों में गिर पड़े। वसिष्ठ ने विश्वामित्र को हृदय से लगाकर 'महर्षि' कहकर उनका स्वागत किया। इस प्रकार दोनों के बीच शत्रुता का अंत हुआ।

ग्रन्थ रचना

ऋग्वेद के सातवें मंडल के दृष्टा वसिष्ठ हैं। इस मंडल में 104 सूक्तों में 841ऋचाएं हैं। उन्होंने अग्नि, इन्द्र, उषा, वरुण, मरुत, सविता, सरस्वती आदि आर्यों के पूज्य देवी देवताओं की स्तुति मधुर एवं ओजस्वी वाणी में की है। 'योगवासिष्ठ महारामायण' में राम वसिष्ठ के संवाद के रूप में छ: प्रकरण हैं। वैराग्य, मुमुक्षुत्व, उत्पत्ति, स्थिति, उपशम और निर्वाण। कुल मिलाकर इस ग्रंथ में 32 हज़ार श्लोक हैं। अद्वैत वेदांत के ग्रंथों में इस ग्रंथ का विशिष्ट स्थान है। ग्रंथ में कहा है- "मानवतापूर्वक जीवन जीए, वही सच्चा मानव है।"


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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