वसुषेण

वसुषेण अथवा 'वसुसेन' महाभारत के श्रेष्ठ महारथियों में से एक कर्ण का वास्तविक नाम था, जो सूर्यदेव की कृपा से कुंती के गर्भ से उत्पन्न हुए थे।

महाभारत के उल्लेखानुसार कन्यावस्था में जब कुन्ती अपने धर्म-पिता राजा कुन्तिभोज के पास रह रही थी, तो एक दिन दुर्वासा मुनि वहाँ आये। कुन्ती ने मुनि की अत्यन्त श्रद्धा और भक्ति से सेवा की, जिससे प्रसन्न होकर दुर्वासा मुनि ने एक ऐसा मन्त्र कुन्ती को सिखाया, जिसका जाप करने से ऐसी सिद्धि प्राप्त हो जाये कि जिस देवता का वह स्मरण करे, वही देवता उसके पास उपस्थित होकर उसकी मनोकामना पूर्ण करे।

इस मंत्र-सिद्धि की परीक्षा करने के लिये कुन्ती ने एक दिन सूर्यदेव का स्मरण किया और सूर्यदेव कुन्ती के समक्ष आकर खड़े हो गये। इस सूर्य आवाह्न के फलस्वरूप कुन्ती के कन्यावस्था में ही कुण्डल और कवचधारी सूर्यमय तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ। किंतु लोकनिंदा और समाज भय से भयान्वित हो कुन्ती ने उस पुत्र को नदी में बहा दिया। राधापति सूतपुत्र ने इस बालक को नदी में बहता देखा तो उन्होंने उसको बाहर निकाल लिया और अपने पास रखकर पुत्र के समान पालन-पोषण करने लगे। राधापति ने इस बालक का नाम 'वसुसेन' रखा। यह वसुसेन महाप्रतापी, पराक्रमी, तेजस्वी होने के अतिरिक्त महादानी भी था। नित्य सूर्य की आराधना करके प्रचुर स्वर्ण का दान दिया करता था।[1] यही आगे चलकर दानवीर कर्ण के नाम से विख्यात हुआ।

वसुसेन की दानशीलता का ज्वलन्त उदाहरण जो महाभारत में मिलता है, वह यही है कि जब देवराज इन्द्र अपने पुत्र अर्जुन का हित करने के लिये ब्राह्मण वेष में वसुसेन के अंग-रक्षक आवरण, कुण्डल-कवच का भिक्षार्थी हुआ तो वसुसेन ने सहर्ष वह आवरण अपने शरीर से अलग करके दे दिया। इस त्याग और दानशीलता से प्रसन्न होकर इन्द्र ने भी वसुसेन को एक ऐसी अमोघ शक्ति प्रदान की, जिसका देव, असुर, गंधर्व या मानव में किसी भी एक पर प्रयोग करने पर वह व्यर्थ नहीं हो और निश्चयपूर्वक जयलाभ हो। इस घटना के पश्चात् वसुसेन 'कर्ण' कहलाने लगा और 'कर्ण' नाम से प्रख्यात हुआ। दुर्योधन ने कर्ण के पराक्रम एवं वीरता को देखकर ही उसे अंगदेश का राजा बना दिया और कर्ण 'अंगराज' कहलाने लगा।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 99

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