विदुर

विदुर

विदुर कौरवों और पांडवों के काका तथा धृतराष्ट्र एवं पांडु के भाई थे। उनको धर्मराज का अवतार भी माना जाता है।परम्परा से विदुर एक नीतिज्ञ के रूप में विख्यात हैं। हिन्दी नीति काव्य पर विदुर के कथनों एवं सिद्धान्तों का पर्याप्त प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। महाभारत-युद्ध को रोकने के लिए विदुर ने यत्न किये, पर अन्तत: असफल रहे। युद्ध के अनन्तर विदुर पांडवों के भी मन्त्री हुए। जीवन के अन्तिम क्षणों में इन्होंने वनवास ग्रहण कर लिया तथा वन में ही इनकी मृत्यु हुई। विदुर धृतराष्ट्र के मन्त्री किन्तु न्यायप्रियता के कारण पांडवों के हितैषी थे। इनकी प्रसिद्ध रचना 'विदुर नीति' के अन्तर्गत नीति सिद्धान्तों का सुन्दर निरूपण हुआ है।

जन्म विवरण

हस्तिनापुर नरेश शांतनु की रानी सत्यवती के चित्रांगद और विचित्रवीर्य नामक दो पुत्र हुये थे। जब चित्रांगद और विचित्रवीर्य छोटे ही थे, तभी शान्तनु का स्वर्गवास हो गया। इसलिये उनका पालन-पोषण भीष्म ने किया। भीष्म ने चित्रांगद के बड़े होने पर उसे राजगद्दी पर बिठा दिया, किन्तु कुछ समय बाद ही वह गन्धर्वों से युद्ध करते हुये मारा गया। विचित्रवीर्य को राज्य सौंपने के बाद भीष्म को विचित्रवीर्य के विवाह की चिन्ता हुई। उसी समय काशीराज की तीन कन्याओं- अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका का स्वयंवर होने वाला था। भीष्म ने वहाँ जाकर अकेले ही सभी राजाओं को हरा दिया और तीनों कन्याओं का हरण करके हस्तिनापुर ले आये। बड़ी कन्या अम्बा ने भीष्म को बताया कि वह राजा शाल्व को प्रेम करती है। यह सुनकर भीष्म ने उसे राजा शाल्व के पास भिजवाया और अम्बिका और अम्बालिका का विवाह विचित्रवीर्य के साथ करवा दिया। विचित्रवीर्य की कोई सन्तान नहीं हुई और वे क्षय रोग से पीड़ित होकर मृत्यु को प्राप्त हो गये। कुल का नाश होने के भय से माता सत्यवती ने भीष्म से कहा- "पुत्र! इस वंश को नष्ट होने से बचाने के लिये मेरी आज्ञा है कि तुम इन दोनों रानियों से पुत्र उत्पन्न करो।" माता का आदेश सुनकर भीष्म ने कहा- "माता! मैं अपनी प्रतिज्ञा भंग नहीं कर सकता।"

माता सत्यवती को अत्यन्त दुःख हुआ। अचानक उन्हें अपने पुत्र वेदव्यास की याद आयी। याद करते ही वेदव्यास वहाँ उपस्थित हो गये। सत्यवती ने उन्हें देखकर कहा- "पुत्र! तुम्हारे सभी भाई निःसन्तान ही स्वर्गवासी हो गये। अतः वंश का नाश होने से बचाने के लिये मैं तुम्हें आज्ञा देती हूँ कि तुम उनकी पत्नियों से सन्तान उत्पन्न करो।" वेदव्यास उनकी आज्ञा मानकर बोले- "माता! आप उन दोनों रानियों से कह दें कि वे एक वर्ष तक नियम व्रत का पालन करते रहें, तभी उनको गर्भ धारण होगा।"

धृतराष्ट्र का जन्म

एक वर्ष व्यतीत हो जाने पर वेदव्यास सबसे पहले बड़ी रानी अम्बिका के पास गये। अम्बिका ने उनके तेज़ से डर कर अपने नेत्र बन्द कर लिये। वेदव्यास लौटकर माता से बोले- "माता अम्बिका का बड़ा ही तेजस्वी पुत्र होगा, किन्तु नेत्र बन्द करने के दोष के कारण वह अंधा होगा।" सत्यवती को यह सुनकर अत्यन्त दुःख हुआ।

पांडु का जन्म

उन्होंने वेदव्यास को छोटी रानी अम्बालिका के पास भेजा। अम्बालिका वेदव्यास को देखकर भय से पीली पड़ गई। उसके कक्ष से लौटने पर वेदव्यास ने सत्यवती से कहा- "माता! अम्बालिका के गर्भ से पांडु रोग से ग्रसित पुत्र होगा।" इससे माता सत्यवती को और भी दुःख हुआ। उन्होंने बड़ी रानी अम्बालिका को पुनः वेदव्यास के पास जाने का आदेश दिया।

विदुर का जन्म

इस बार बड़ी रानी ने स्वयं न जाकर अपनी दासी को वेदव्यास के पास भेज दिया। दासी ने आनन्दपूर्वक वेदव्यास से भोग कराया। इस बार वेदव्यास ने माता सत्यवती के पास आकर कहा- "माते! इस दासी के गर्भ से वेद-वेदान्त में पारंगत अत्यन्त नीतिवान पुत्र उत्पन्न होगा।" इतना कहकर वेदव्यास तपस्या करने चले गये।

समय आने पर अम्बा के गर्भ से जन्मांध धृतराष्ट्र, अम्बालिका के गर्भ से पांडु रोग से ग्रसित पांडु तथा दासी के गर्भ से धर्मात्मा विदुर का जन्म हुआ। धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर के लालन-पालन का भार भीष्म के ऊपर था। तीनों पुत्र बड़े होने पर विद्या पढ़ने भेजे गये। धृतराष्ट्र बल विद्या में, पांडु धनुर्विद्या में तथा विदुर धर्म और नीति में निपुण हुये। युवा होने पर धृतराष्ट्र अन्धे होने के कारण राज्य के उत्तराधिकारी न बन सके। विदुर दासीपुत्र थे, इसलिये पांडु को ही हस्तिनापुर का राजा घोषित किया गया।

यमराज के अवतार

माण्‍डव्‍य ऋषि के शाप से यमराज ने ही दासी-पुत्र के रूप में धृतराष्‍ट्र तथा पांडु के भाई होकर जन्‍म लिया था। यमराज भागवताचार्य हैं। अपने इस रूप में मनुष्‍य जन्‍म लेकर भी वे भगवान के परम भक्त तथा धर्मपरायण ही रहे। विदुर महाराज धृतराष्‍ट्र के मंत्री थे और सदा इसी प्रयत्‍न में रहते थे कि महाराज धर्म का पालन करें। वे नीतिशास्‍त्र के महान पण्डित और प्रवर्तक थे। इनकी 'विदुरनीति' बहुत ही उपादेय और प्रख्‍यात है।

पांडव हितैषी

जब कभी पुत्र स्‍नेहवश धृतराष्‍ट्र पांडवों को क्‍लेश देते या उनके अहित की योजना सोचते, तब विदुर जी उन्‍हें समझाने का प्रयत्‍न करते। स्‍पष्‍टवादी और न्‍याय का समर्थक होने पर धृतराष्‍ट्र इन्‍हें बहुत मानते थे। दुर्योधन अवश्‍य ही इनसे जला करता था। धर्मरत पांडु के पुत्रों से ये स्‍नेह करते थे। जब दुरात्‍मा दुर्योधन ने लाक्षाभवन में पांडवों को जलाने का षडयंत्र किया, तब विदुर जी ने उन्‍हें बचाने की व्‍यवस्‍था की और गुह्य भाषा में संदेश भेजकर युधिष्ठिर को पहले ही सावधान कर दिया तथा उस भयंकर गृह से बच निकलने की युक्ति भी बता दी।

अधर्म विरोधी

सज्‍जनों को सदा न्‍याय एवं धर्म ही अच्‍छा लगता है। अन्‍याय तथा अधर्म का विरोध करना उनका स्‍वभाव होता है। इसके लिये अनेकों बार दुर्जनों से उन्‍हें तिरस्‍कृत तथा पीड़ेत भी होना पड़ता है। विदुर दुर्योधन के दुष्‍कर्मों का प्रबल विरोध करते थे। जब कौरवों ने भरी सभा में द्रौपदी को अपमानित करना प्रारम्‍भ किया, तब वे रुष्‍ट होकर सभाभवन से चले गये। पांडवों के वनवास के समय विदुर को दुर्योधन के भड़काने से धृतराष्‍ट्र ने कह दिया- "तुम सदा पांडवों की ही प्रशंसा करते हो, अत: उन्‍हीं के पास चले जाओ।" विदुर वन में पांडवों के पास चले गये। उनके चले जाने पर धृतराष्‍ट्र को उनकी महत्‍ता का पता लगा। विदुर से रहित अपने को वे असहाय समझने लगे। तब दूत भेजकर विदुर को उन्‍होंने फिर बुलाया। मानापमान में समान भाव रखने वाले विदुर जी लौट आये।

श्रीकृष्ण का आथित्य

पांडवों के वनवास के तेरह वर्ष कुन्‍ती देवी विदुर के यहाँ ही रही थीं। जब श्रीकृष्‍णचन्‍द्र सन्धि कराने पधारे, तब दुर्योधन का स्‍वागत-सत्‍कार उन्‍होंने अस्‍वीकार कर दिया। उन मधुसूदन को कभी ऐश्‍वर्य सन्‍तुष्‍ट नहीं कर पाता, वे तो भक्त के भाव भरे तुलसीदल एवं जल के ही भूखे रहते हैं। श्रीकृष्‍णचन्‍द्र ने धृतराष्‍ट्र, भीष्म, भूरिश्रवा आदि समस्‍त लोगों का आतिथ्‍य अस्‍वीकार कर दिया और विदुर के घर वे बिना निमंत्रण के ही पहुँच गये। अपने सच्‍चे भक्त का घर तो उनका अपना ही घर है। विदुर के शाक को उन त्रिभुवनपति ने नैवेद्य बनाया। विदुरानी के केले के छिलके की कथा प्रसिद्ध है। महाभारत के अनुसार विदुर ने विविध व्‍यंजनादि से उनका सत्‍कार किया था।

तीर्थाटन

महाराज धृतराष्‍ट्र को भरी सभा में श्रीकृष्‍णचन्‍द्र के सम्‍मुख तथा केशव के चले जाने पर अकेले भी विदुर ने समझाया- "दुर्योधन पापी है। इसके कारण कुरु कुल का विनाश होता दीखता है। इसे बांधकर आप पांडवों को दे दें।" दुर्योधन इससे बहुत बिगड़ा। उसने कठोर वचन कहे। विदुर को युद्ध में किसी का पक्ष लेना नहीं था, अत: शास्‍त्र छोड़कर वे तीर्थाटन को चले गये। अवधूत वेश में वे तीर्थों में घूमते रहे। बिना मांगे जो कुछ मिल जाता, वही खा लेते। नंगे शरीर कन्‍द-मूल खाते हुए वे तीर्थों में लगभग 36 वर्ष विचरते रहे। अन्‍त में मथुरा में उन्‍हें उद्धव मिले। उनसे महाभारत के युद्ध, यदुकुल के क्षय तथा श्रीकृष्ण के स्‍वधामगमन का समाचार मिला।

शरीर त्याग

भगवान ने स्‍वधाम पधारते समय महर्षि मैत्रेय को आदेश दिया था विदुर जी को उपदेश करने का। उद्धव से यह समाचार पाकर विदुर हरद्वार गये। वहाँ मैत्रेय जी से उन्‍होंने भगवदुपदिष्‍ट तत्‍त्‍वज्ञान प्राप्‍त किया और फिर हस्तिनापुर आये। हस्तिनापुर विदुर केवल बड़े भाई धृतराष्‍ट्र को आत्‍मकल्‍याण का मार्ग प्रदर्शन करने आये थे। उनके उपदेश से धृतराष्ट्र एवं गांधारी का मोह दूर हो गया और वे विरक्‍त होकर वन को चले गये। विदुर तो सदा से विरक्‍त थे। वन में जाकर उन्‍होंने भगवान में चित्‍त लगाकर योगियों की भाँति शरीर को छोड़ दिया।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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