राधापति सूतपुत्र

राधापति सूतपुत्र महाभारत के अनुसार कर्ण के पालक पिता थे। उनका मूल नाम अधिरथ था। अधिरथ अंग वंश में उत्पन्न सत्कर्मा के पुत्र थे। उनकी पत्नी का नाम राधा था, इसीलिए वे राधापति कहे जाते थे।

महाभारत के उल्लेखानुसार कन्यावस्था में जब कुन्ती अपने धर्म-पिता राजा कुन्तिभोज के पास रह रही थी, तो एक दिन दुर्वासा मुनि वहाँ आये। कुन्ती ने मुनि की अत्यन्त श्रद्धा और भक्ति से सेवा की, जिससे प्रसन्न होकर दुर्वासा मुनि ने एक ऐसा मन्त्र कुन्ती को सिखाया, जिसका जाप करने से ऐसी सिद्धि प्राप्त हो जाये कि जिस देवता का वह स्मरण करे, वही देवता उसके पास उपस्थित होकर उसकी मनोकामना पूर्ण करे।

इस मंत्र-सिद्धि की परीक्षा करने के लिये कुन्ती ने एक दिन सूर्यदेव का स्मरण किया और सूर्यदेव कुन्ती के समक्ष आकर खड़े हो गये। इस सूर्य आवाह्न के फलस्वरूप कुन्ती के कन्यावस्था में ही कुण्डल और कवचधारी सूर्यमय तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ। किंतु लोकनिंदा और समाज भय से भयान्वित हो कुन्ती ने उस पुत्र को नदी में बहा दिया। राधापति सूतपुत्र ने इस बालक को नदी में बहता देखा तो उन्होंने उसको बाहर निकाल लिया और अपने पास रखकर पुत्र के समान पालन-पोषण करने लगे। राधापति ने इस बालक का नाम 'वसुसेन' रखा। यह वसुसेन महाप्रतापी, पराक्रमी, तेजस्वी होने के अतिरिक्त महादानी भी था। नित्य सूर्य की आराधना करके प्रचुर स्वर्ण का दान दिया करता था।[1] यही आगे चलकर दानवीर कर्ण के नाम से विख्यात हुआ।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 99

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