कंक

Disamb2.jpg कंक एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- कंक (बहुविकल्पी)

कंक महाभारत में एक वर्ष के अज्ञातवास के समय युधिष्ठिर द्वारा अपनाया गया नाम था। महाभारत में पांडवों के बारह वर्ष के वनवास की समाप्ति के बाद एक वर्ष का अज्ञातवास भी था, जो उन्होंने विराट नगर में बिताया। विराट नगर में पांडव अपना नाम और पहचान छुपाकर रहे। उन्होंने राजा विराट के यहाँ सेवक बनकर एक वर्ष बिताया। युधिष्ठिर राजा विराट का मनोरंजन करने वाले 'कंक' बने, जिसका अर्थ होता है- "यमराज का वाचक"। यमराज का ही दूसरा नाम धर्म है और वे ही युधिष्ठिर रूप में अवतीर्ण हुए थे।

विराट पर्व में उल्लेख

महाभारत विराटपर्व में उल्लेख मिलता है कि, अर्जुन ने युधिष्ठिर से पूछा- "नरदेव! आप उनके (विराट के) राष्ट्र में किस प्रकार कार्य करेंगे। महात्मन! विराटनगर में कौन-सा कर्म करने से आपको प्रसन्नता होगी? राजन! आपका स्वभाव कोमल है। आप उदार, लज्जाशील, धर्मपरायण तथा सम्यपराक्रमी हैं, तथापि विपत्ति में पड़े हैं। पाण्डुनन्दन! आप वहाँ क्या करेंगे? राजन! साधारण मनुष्यों की भाँति आपको किसी प्रकार के दुःख का अनुभव हो, यह उचित नहीं है; अतः इस घोर विपत्ति में पड़कर आप कैसे इसके पार होंगे?"

युधिष्ठिर ने कहा- "नरश्रेष्ठ कुरुनन्दनों! मैं राजा विराट के यहाँ चलकर जो कार्य करूँगा, वह बताता हूँ; सुनो। मैं पासा खेलने की विद्या जानता हूँ और यह खेल मुझे प्रिय भी है, अतः मैं 'कंक' नामक ब्राह्मण बनकर महामना राजा विराट की राजसभा का एक सदस्य हो जाऊँगा और वैदूर्यमणि के समान हरी, सुवर्ण के समान पीली तथा हाथी दाँत की बनी हुई काली और लाल रंग की मनोहर गोटियों को चमकीले बिन्दुओं से युक्त पासों के अनुसार चलाता रहूँगा।। मैं राजा विराट को उनके मन्त्रियों तथा बन्धु-बान्धवों सहित पासों के खेल से प्रसन्न करता रहूँगा। इस रूप में मुझे कोई पहचान न सकेगा और मैं उन मत्स्य नरेश को भली-भाँति संतुष्ट रखूँगा। यदि वे राजा मुझसे पूछेंगे कि आप कौन हैं, तो मैं उन्हें बताऊँगा कि मैं पहले महाराज युधिष्ठिर का प्राणों के समान प्रिय सखा था। इस प्रकार मैंने तुम लोगों को बता दिया कि विराट नगर में मैं किस प्रकार रहूँगा।"[1]

'आत्मा वै जायतै पुत्र:'

उपरोक्त उक्ति के अनुसार भी धर्म एवं धर्मपुत्र युधिष्ठिर में कोई अन्तर नहीं है। यह समझकर ही अपनी सत्यवादिता की रक्षा करते हुए युधिष्ठिर ने 'कङ्क' नाम से अपना परिचय विराट को दिया था। इसके अतिरिक्त उन्होंने जो अपने को युधिष्ठिर का प्राणों के समान प्रिय सखा बताया, वह भी असत्य नहीं है। युधिष्ठिर नामक शरीर को ही यहाँ युधिष्ठिर समझना चाहिये। आत्मा की सत्ता ही शरीर का संचालन होता है। अत: आत्मा उसके साथ रहने के कारण उसका सखा है। आत्मा सबसे बढ़कर प्रिय है ही; अत: यहाँ युधिष्ठिर का आत्मा युधिष्ठिर-शरीर का प्रिय सखा कहा गया है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत विराट पर्व अध्याय 1 श्लोक 19-28

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