द्वैतवन

द्वैतवन हिन्दू धार्मिक महाकाव्य 'महाभारत' में वर्णित वन है, जहाँ पांडवों ने वनवास काल का एक अंश व्यतीत किया था। यह वन सरस्वती नदी के तट पर स्थित था-

'ते यात्वा पांडवास्तत्र ब्राह्मणैर्बहुभि: सह, पुण्यं द्वैतवनं रम्यं विविशुर्भरतर्षभा:। तमालतालाभ्रमधूकनीप कदंबसर्जार्जुनकर्णिकारै:, तपात्यये पुष्पधरैरुपेतं महावनं राष्ट्रपतिं ददर्श। मनोरमां भोगवतीमुपेत्य पूतात्मनांचीरजटाधराणाम्, तस्मिन् वने धर्मभृतां निवासे ददर्श सिद्धर्षिगणाननेकान्।'[1]
'स वर्णलिंगी विदित: समाययौ युधिष्ठिरं द्वैतवने वनेचर:'भारवी के किरातार्जुनीयम्[2]
'पुण्य द्वैतवनं सर:।'[3]

प्राचीनता

कुछ विद्वानों के अनुसार ज़िला सहारनपुर, उत्तर प्रदेश में स्थित देवबंद ही महाभारत कालीन द्वैतवन है। संभव है प्राचीन काल में सरस्वती नदी का मार्ग देवबंद के पास से ही रहा हो। 'शतपथ ब्राह्मण'[4] में द्वैतवन नामक राजा को मत्स्य-नरेश कहा गया है। इस ब्राह्मण ग्रंथ की गाथा के अनुसार इसने 12 अश्वों से 'अश्वमेध यज्ञ' किया था, जिससे द्वैतवन नामक सरोवर का यह नाम हुआ था। इस यज्ञ को सरस्वती तट पर संपन्न हुआ बताया गया है। इस उल्लेख के आधार पर द्वैतवन सरोवर की स्थिति मत्स्य (अलवर, जयपुर), भरतपुर के क्षेत्र में माननी पड़ेगी। द्वैतवन नामक वन भी सरोवर के निकट ही स्थित होगा। 'मीमांसा' के रचयिता जैमिनी का जन्मस्थान द्वैतवन ही बताया जाता है।

महाभारत में उल्लेख

दुर्योधन को किसी ब्राह्मण से ज्ञात हुआ कि वनवासी पांडव अत्यंत दयनीय स्थिति में द्वैतवन में निवास कर रहे हैं, तब उस खल बुद्धि ने उनके सन्मुख अपना वैभव-प्रदर्शन करने की ठानी। दुर्योधन, शकुनि तथा कर्ण अपनी असीम सेना तथा सजी-धजी रानियों के साथ घोष यात्रा के बहाने से द्वैतवन गये। उनकी गउएं वहाँ चरा करती थीं। गउओं की गणना करने के उपरांत उन्होंने द्वैतवन के तालाब के पास क्रीड़ा मंडप बनाने के लिए सैनिकों को भेजा। उस दिन युधिष्ठिर द्रौपदी के साथ उसी सरोवर के किनारे सद्यस्क (एक दिन का) राजर्षि यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे थे। गंधर्व गण भी गंधर्वियों के साथ इस वन में विहार करते थे। कौरवों के सैनिकों को गंधर्वों ने वहाँ आने से रोका तो दोनों दलों में ठन गयी। गंधर्वों ने कौरवों को भयंकर युद्ध में परास्त कर बंदी बना लिया। वे उनकी रानियों सहित उन्हें गंधर्व लोक ले चले। ऐसे विकट समय में कौरवों के सेनापतिगण युधिष्ठिर की शरण में पहुँचे। भीम के विरोध करने पर भी युधिष्ठिर ने उनकी रक्षा का वचन दिया, क्योंकि अपना वंश था। स्त्रियों का अपहरण बहुत बड़ा अपमान है। पांडवों ने शरणागत की रक्षा के निमित्त गंधर्वों से युद्ध किया। गंधर्वराज चित्रसेन ने प्रकट होकर पांडवों को बताया कि उन्हें इन्द्र ने युद्ध के लिए प्रेरित किया था, क्योंकि कौरव अपने वैभव का प्रदर्शन करके पांडवों को कुंठित करना चाहते थे। अर्जुन के कहने पर गंधर्वों ने अपहृय रानियों सहित दुर्योधन, शकुनि तथा कर्ण आदि को मुक्त कर दिया।

दुर्योधन ने अत्याधिक आत्मग्लानि का अनुभव किया तथा हस्तिनापुर लौटने की अपेक्षा आमरण अनशन करके शरीर त्यागने का निश्चय किया। कर्ण आदि ने उससे कहा- 'पांडवों का युद्ध करना स्वाभाविक कार्य था- तुम पर आभार नहीं था, क्योंकि शासक की रक्षा के निमित्त युद्ध करना प्रत्येक देशवासी का कर्तव्य है।' दुर्योधन किसी भी प्रकार नहीं माना। वह आचमन करके कुशासन पर आमरण अनशन के लिए बैठ गया। दानवों को मालूम पड़ा तो उन्होंने एक कृत्या से उसे उठवाकर रसातल में मंगवा लिया। दानवों ने सामूहिक रूप से उसे समझाया कि दुर्योधन का जन्म उन्हीं लोगों की शिव की आराधना में की गयी तपस्या के फलस्वरूप हुआ था। उसका नाभि से ऊपर का प्रदेश वज्र से बना होने के कारण विदीर्ण नहीं हो सकता था, नाभि से नीचे का प्रदेश पार्वती ने पुष्पमय बनाया था, अत: वह स्त्रियों को मोहित करने वाला है। भविष्य में अनेक दानव भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य आदि के शरीर में प्रवेश करेंगे, अत: वे मोहित होकर बंधु-बांधवों को मारने में संकोच नहीं करेंगे।

नरकासुर का वध श्रीकृष्ण ने किया था, वह कर्ण में प्रवेश करेगा। इन्द्र यह जानकर कर्ण के कुण्डल और कवच छल से ले लेगा- पर कौरवों की विजय ध्रुव है। इस प्रकार दुर्योधन को समझाकर दानवों ने कृत्या द्वारा उसे पुन: उसके आसन पर आसीन करवा दिया। दुर्योधन ने इसे स्वप्न समझा किंतु किसी पर प्रकट नहीं किया। प्रात:काल कर्ण के पुन: समझाने-बुझाने तथा अर्जुन को मार डालने की प्रतिज्ञा करने पर दुर्योधन ने आमरण अनशन छोड़कर उनके साथ हस्तिनापुर में प्रवेश किया। कालांतर में कर्ण ने पृथ्वी पर दिग्विजय प्राप्त की तथा दुर्योधन ने वैष्णव यज्ञ किया। अधीनस्थ राजाओं के कर से सोने का हल बनवाकर उससे यज्ञ-मंडप की भूमि जोती गयी। दुर्योधन यद्यपि राजसूय यज्ञ करना चाहता था, किंतु उसी के कुल के युधिष्ठिर ने यह यज्ञ कर रखा था, अत: इसके जीवित रहते राजसूय यज्ञ करना संभव नहीं था, ऐसी ब्राह्मणों की व्यवस्था थी। यज्ञ के उपरांत कर्ण ने अर्जुन को मार डालने की शपथ ली और कहा कि वह जब तक अर्जुन को नहीं मारेगा, तब तक किसी से पैर नहीं धुलवायेगा, केवल जल से उत्पन्न पदार्थ नहीं खायेगा, किसी पर क्रूरता नहीं करेगा तथा कुछ भी मांगने पर मना नहीं करेगा। गुप्तचरों के माध्यम से यह समाचार पांडवों तक भी पहुँचा। उधर स्वप्न में द्वैतवन के हिंसक पशुओं ने युधिष्ठिर से जाकर प्रार्थना की कि पांडवगण अपना आवास स्थान बदल लें, क्योंकि द्वैतवन में पशुओं की संख्या अत्यंत न्यून हो गयी है। युधिष्ठिर ने द्वैतवन का त्याग कर पांडवों, द्रौपदी तथा शेष साथियों सहित काम्यकवन में स्थित तृणबिंदु नामक सरोवर के लिए प्रस्थान किया।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत वन 24, 16-17-20
  2. किरातार्जुनीयम् 1, 1
  3. महाभारत सभा पर्व 24, 13
  4. शतपथ ब्राह्मण 13, 54, 9

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