शल्य

शल्य मद्र देश का महारथी था। पांडवों ने माद्री के भाई, मामा शल्य को महाभारत युद्ध में सहायतार्थ आमन्त्रित किया था। शल्य अपनी विशाल सेना के साथ पांडवों की ओर जा रहा था। मार्ग में दुर्योधन ने छलपूर्वक उन सबका अतिथि-सत्कार कर उन्हें प्रसन्न किया, जिस कारण शल्य ने महाभारत युद्ध में कौरवों की ओर से सक्रिय भाग लिया।

कर्ण का सारथी

कर्ण के सेनापतित्व ग्रहण करने के उपरांत उसकी सलाह से दुर्योधन ने शल्य से कर्ण का सारथि बनने की प्रार्थना की। उसे यह प्रस्ताव अपमानजनक लगा, अत: वह दुर्योधन की सभा से उठकर जाने लगा। दुर्योधन ने बहुत समझा-बुझाकर तथा उसे श्रीकृष्ण से भी श्रेयस्कर बताकर सारथी का कार्यभार उठाने के लिए तैयार कर लिया। शल्य ने यथावत समाचार पांडवों को दिया तो युधिष्ठिर ने मामा शल्य से कहा- "कौरवों की ओर से कर्ण के युद्ध करने पर निश्चय ही आप सारथी होंगे। आप हमारा यही भला कर सकते हैं कि कर्ण का उत्साह भंग करते रहें।" शल्य ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। कर्ण का सारथी बनते समय शल्य ने यह शर्त दुर्योधन के सम्मुख रखी थी कि उसे स्वेच्छा से बोलने की छूट रहेगी, चाहे वह कर्ण को भला लगे या बुरा। दुर्योधन तथा कर्ण आदि ने शर्त स्वीकार कर ली।

शल्य द्वारा कर्ण का उपहास

कर्ण स्वभाव से दंभी था। वह जब भी आत्मप्रशंसा करता, शल्य उसका परिहास करने लगता तथा पांडवों की प्रशंसा कर उसे हतोत्साहित करता रहता। शल्य ने एक कथा भी सुनायी कि- "एक बार वैश्य परिवार की जूठन पर पलने वाला एक गर्वीला कौआ राजहंसों को अपने सम्मुख कुछ समझता ही नहीं था। एक बार एक हंस से उसने उड़ने की होड़ लगायी और बोला कि वह सौ प्रकार से उड़ना जानता है। होड़ में लंबी उड़ान लेते हुए वह थक कर महासागर में गिर गया। राजहंस ने प्राणों की भीख मांगते हुए कौए को सागर से बाहर निकाल अपनी पीठ पर लादकर उसके देश तक पहुँचा दिया।" शल्य बोला- "इसी प्रकार कर्ण, तुम भी कौरवों की भीख पर पलकर घंमडी होते जा रहे हो।" कर्ण बहुत रुष्ट हुआ, पर युद्ध पूर्ववत चलता रहा।

मृत्यु

कर्ण-वध के उपरांत कौरवों ने अश्वत्थामा के कहने से शल्य को सेनापति बनाया। श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को शल्य-वध के लिए उत्साहित करते हुए कहा कि इस समय यह बात भूल जानी चाहिए कि वह पांडवों का मामा है। कौरवों ने परस्पर विचार कर यह नियम बनाया कि कोई भी एक योद्धा अकेला पांडवों से युद्ध नहीं करेगा। शल्य का प्रत्येक पांडव से युद्ध हुआ। कभी वह पराजित हुआ, कभी पांडवगण। अंत में युधिष्ठिर ने उस पर शक्ति से प्रहार किया। उसके वधोपरांत उसका भाई, जो कि शल्य के समान ही तेजस्वी था, युधिष्ठिर से युद्ध करने आया और उन्हीं के हाथों मारा गया। दुर्योधन ने अपने योद्धाओं को बहुत कोसा कि जब यह निश्चित हो गया था कि कोई भी अकेला योद्धा शत्रुओं से लड़ने नहीं जायेगा, शल्य पांडवों की ओर क्यों बढ़ा? इसी कारण दोनों भाई मारे गये।[1]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत, उद्योगपर्व, 8।, कर्णपर्व, 32।, शल्यपर्व, 5-8।11-18

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