महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 20 श्लोक 1-16

विंश (20) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

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महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: विंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
ब्राह्मणगीता- एक ब्राह्मण का अपनी पत्नी से ज्ञान यज्ञ का उपदेश करना

श्रीकृष्ण कहते हैं- भरतश्रेष्ठ! अर्जुन! इसी विषय में पति-पत्नी के संवाद रूप एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। एक ब्राह्मण, जो ज्ञान-विज्ञान के पारगामी विद्वान थे, एकान्त स्थान में बैठे हुए थे, यह देखकर उनकी पत्नी ब्राह्मणी अपने उन पति देव के पास जाकर बोली- ‘प्राणानाथ! मैंने सुना है कि स्त्रियाँ पति के कर्मानुसार प्राप्त हुए लोकों को जाती हैं, किंतु आप जो कर्म छोड़कर बैठे हैं और मेरे प्रति कठोरता का बर्ताव करते हैं। आपको इस बात का पता नहीं है कि मैं अनन्य भाव से आपके ही आश्रित हूँ। ऐसी दशा में आप जैसे पति का आश्रय लेकर में किस लोक में आऊँगी? आपको पति रूप में पाकर मेरी क्या गति होगी’। पत्नी के ऐसा कहने पर वे शान्तचित्त वाले ब्राह्मण देवता हँसते हुए से बोले- ‘सौभाग्यशालिनि! तुम पाप से सदा दूर रहती हो, अत: तुम्हारे इस कथन के लिये मैं बुरा नहीं मानता।

संसार में ग्रहण करने योग्य दीक्षा और व्रत आदि हैं तथा इन आँखों से दिखायी देने वाले जो स्थूल कर्म हैं, उन्हीं को वस्तुत: कर्म माना जाता है। कर्मठ लोग ऐसे ही कर्म को कर्म के नास से पुकारते हैं। किंतु जिन्हें ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई है, वे लोग कर्म के द्वारा मोह का ही संग्रह करते हैं। इस लोक मेें कोई दो घड़ी भी बिना कर्म किये रह सके, ऐसा सम्भव नहीं है। मन से, वाणी से तथा क्रिया द्वारा जो भी शुभ या अशुभ कार्य होता है, वह तथा जन्म, स्थिति, विनाश एवं शरीर भेद आदि कर्म प्राणियों में विद्यमान हैं। जब राक्षसों दुर्जनों ने जहाँ सोम और घृत आदि दृश्य द्रव्यों का उपयोग होता है, उन कर्म मार्गों का विनाश आरम्भ कर दिया, जब मैंने उनसे विरक्त होकर स्वयं ही अपने भीतर स्थित हुए आत्मा के स्थान को देखा। जहाँ द्वन्द्वों से रहित व परब्रह्म परमात्मा विराजमान हैं, जहाँ सोम अग्नि के साथ नित्य समागम करता है तथा जहाँ सब भूतों को धारण करने वाला धीर समीर निरन्तर चलता रहता है।

जहाँ ब्रह्मा आदि देवता तथा उत्तम व्रत का पालन करने वाले शान्तचित्त जितेन्द्रिय विद्वान योगयुक्त होकर उस अविनाशी ब्रह्म की उपासना करते हैं। वह अविनाशी ब्रह्म घ्राणेन्द्रियों से सूघँने और जिह्वा द्वारा आस्वादन करने योग्य नहीं है। स्पर्शेन्द्रिय त्वचा द्वारा उसका स्पर्श भी नहीं किया जा सकता, केवल बुद्धि के द्वारा उसका अनुभव किया जा सकता है। वह नेत्रों का विषय नहीं हो सकता। वह अनिर्वयनीय परब्रह्म श्रवणेन्द्रिय की पहुँच से सर्वथा परे है। गन्ध, रस, स्पर्श रूप और शब्द आदि कोई भी लक्षण उसमें उपलब्ध नहीं है। उसी से सृष्टि आदि का विस्तार होता है और उसी में उसकी स्थिति है। प्राण, अपान, समान, व्यान और उदान- ये उसी से प्रकट होते और फिर उसी में प्रविष्ट हो जाते हैं। समान और व्यान- इन दोनों के बीच में प्राण और अपान विचरते हैं। उस अपान सहित प्राण के लीन होने पर समान और व्यान का भी लय हो जाता है। अपान और प्राण के बीच में उदान सबको व्याप्त करके स्थित होता है। इसीलिये सोये हुए पुरुष को प्राण और अपान नहीं छोड़ते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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