महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 12 श्लोक 1-19

द्वादश (12) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: द्वादश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


नकुल का गृहस्थ-धर्म की प्रशंसा करते हुए राजा युधिष्ठिर को समझाना

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! अर्जुन की बात सुनकर नकुल ने भी सम्पूर्ण धर्मात्माओं में श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर की ओर देखकर कुछ कहने को उद्यत हुए। शत्रुओं का दमन करने वाले जनमेजय! महाबाहु नकुल बड़े मितभाषी थे। उन्होंने भाई के चित्त का अनुसरण करते हुए कहा।

नकुल बोले- महाराज! विशाखयूप नामक क्षेत्र में सम्पूर्ण देवताओं द्वारा की हुई अग्नि स्थापना के चिह्न (ईटों की बनी हुई वेदियां) मौजूद हैं। इससे आपको यह समझना चाहिये कि देवता भी वैदिक कर्मां और उनके फलों पर विश्वास करते हैं।

राजन्! आस्तिकता की बुद्धि से रहित समस्त प्राणियों के प्राणदाता पितर भी शास्त्र के विधिवाक्यों पर दृष्टि रखकर कर्म ही करते हैं। भारत! जो वेदों की आज्ञा के विरुद्ध चलते हैं, उन्हें बड़ा भारी नास्तिक समझिये। वेद की आज्ञा का उल्लंघन करके सब प्रकार के कर्म करने पर भी कोई ब्राह्मण देवयान मार्ग के द्वारा स्वर्गलोक की पृष्ठभूमि में पैर नहीं रख सकता। यह गृहस्थ-आश्रम सब आश्रमों में ऊँचा है। यह बात वेदों के सिद्धान्त को जानने वाले श्रुतिसम्पन्न ब्राह्मण कहते है। नरेश्वर! आप उनकी सेवा में उपस्थित होकर इस बात को समझिये। महाराज! जो धर्म से प्राप्त किये हुए धन का श्रेष्ठ यज्ञों में उपयोग करता है और अपने मन को वश में रखता है, वह मुनष्य त्यागी माना गया है। महाराज! जिसने गृहस्थ-आश्रम के सुखभोगों को कभी नहीं देखा, फिर भी जो ऊपर वाले वानप्रस्थ आदि आश्रमों में प्रतिष्ठित होकर देहत्याग करता है, उसे तामस त्यागी माना गया है।

पार्थ! जिसका कोई घरबार नहीं, जो इधर-उधर विचरता और चुपचाप किसी वृक्ष के नीचे उसकी जड़ पर सो जाता है, जो अपने लिये कभी रसोई नहीं बनाता और सदा योग-परायण रहता है, ऐसे त्यागी को भिक्षुक कहते हैं। कुन्तीनन्दन! ये ब्राह्मण क्रोध, हर्ष और विशेषतः चुगली की अवहेलना करके सदा वेदों के स्वाध्याय में लगा रहता है, वह त्यागी कहलाता है। राजन्! कहते हैं कि एक समय मनीषी पुरुषों ने चारों आश्रमों को (विवेक के) तराजू पर रखकर तौला था। एक ओर तो अन्य तीनों आश्रम थे और दूसरी ओर अकेला गृहस्थ आश्रम था। भरतवंशी नरेश! पार्थ! इस प्रकार विवेक की तुला पर रख कर जब देखा गया तो गृहस्थ-आश्रम ही महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ; क्योंकि वहाँ भोग और स्वर्ग दोनों सुलभ थे। तब से उन्होंने निश्चय किया कि 'यही मुनियों का मार्ग है और यही लोक वेत्ताओं की गति है’।

भरतश्रेष्ठ! जो ऐसा भाव रखता है, वही त्यागी है। जो मूर्ख की तरह घर छोड़कर वन में चला जाता है, वह त्यागी नहीं है। वन में रहकर भी यदि धर्मध्वजी मनुष्य काम-भोगों पर दृष्टिपात (उनका स्मरण) करता है तो यमराज उसके गले में मौत का फंदा डाल देते हैं। महाराज! यही कर्म यदि अभिमानपूर्वक किया जाय तो वह सफल नहीं होता और त्यागपूर्वक किया हुआ सारा कर्म ही महान् फलदायक होता है। शम, दम, धैर्य, सत्य, शौच, सरलता, यज्ञ, धृति तथा धर्म इन सबका ऋषियों के लिये निरन्तर पालन करने का विधान है। महाराज! गृहस्थ- आश्रम में ही देवताओं, पितरों तथा अतिथियों के लिये किये जाने वाले आयोजन की प्रशंसा की जाती है। केवल यही धर्म, अर्थ और काम- ये तीनों सिद्ध होते हैं। यहाँ रहकर वेद विहित विधि का पालन करने वाले निष्ठावान् त्यागी का कभी विनाश नहीं होता- वह पारलौकिक उन्नति से कभी वंचित नहीं रहता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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