महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 336 श्लोक 1-19

षट्त्रिंशदधिकत्रिशततम(336) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: षट्त्रिंशदधिकत्रिशततम अध्‍याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


राजा उपरिचर के यज्ञ में भगवान् बृहस्पति का क्रोधित होना, एकत आदि मुनियों का बृहस्पति से यवेतद्वीप एवं भगवान् की महिमा का वर्णन करके उनको शान्त करना

भीष्मजी कहते हैं - युधिष्ठिर! तदनन्तर बीते हुए महान् कल्प के आरम्भ में जब अंगिरा के पुत्र बृहस्पति उत्पन्न हुए और देवताओं के पुरोहित बन गये, तब देवताओं को बड़ा संतोष प्राप्त हुआ। राजन्! बृहत, ब्रह्म ओर महत् - ये तीनों शब्द एक अर्थ के वाचक हैं। इन तीनों याब्दों के गुण देवपुरोहित में मौजूद थे; इसलिये वे विद्वान् देवगुरु ‘बृहस्पति’ कहलाते थे। उनके श्रेष्ठ शिष्य हुए राजा उपरिचर वसु, जिन्होंने उनसे उन दिनों चित्रशिखण्डियों के बनाये हुए तन्त्रशास्त्र का विधिवत् अध्ययन किया। वे राजा उपरिचर वसु पहले दैवविधान से भवित हो इस पृथ्वी का उसी प्रकार पालन करने लगे, जैसे इन्द्र स्वर्ग का एक समय उन महात्मा नरेश ने महान् अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया। उसमें उनके उपाध्याय बृहस्पति होता हुए। प्रजापति के तीन पुत्र एकत, द्वित, और त्रित नामक महर्षि उस यज्ञ में सदस्य हुए। इनके सिवा (तेरह सदस्य और थे, जिनके नाम इस प्रकार हैं -) धनुष, रैभ्य,अर्वावसु, परावसु, मुनिवर मेधातिथि, महर्षि ताण्डव, महाभाग शान्तिमुनि, वेदशिरा, शालिहोत्र के पिता ऋषिश्रेष्ठ कपिल, आद्यकठ, वैशम्पायन के बडत्रे भाई तैत्तिरि, कण्व और देवहोत्र। ये कुल मिलाकर सोलह सदस्य बताये गये हैं। राजन्! उस महान् यज्ञ में सारे सामान एकत्र किये गये; परंतु उसमें किसी पशु का वध नहीं हुआ। वे राजा उपरिचर इसी भाव से उस यज्ञ में स्थित हुए थे। वे हिंसाभाव से रहित, पवित्र, उदार तथा कामनाओं से रहित थे और इसी भाव से कर्म में प्रवृत्त हुए थे। जंगल में उत्पन्न हुए फल-मूल आदि पदार्थों से ही उस यज्ञ में देवताओं के भाग निश्चित किये गये थे। उस समय पुराणपुरुष देवाधिदेव भगवान् नारायण ने प्रसन्न होकर राजा को प्रत्यक्ष दर्शन दिया; परंतु दूसरे किसी को उनका दर्शन नहीं हुआ। भगवान् हयग्रीव ने स्वयं अदृश्य रहकर ही अपने लिये अर्पित पुरोडाश को ग्रहध किया और उसे सूँघकर अपने अधीन कर लिया। यह देख बृहस्पति क्रोध में भर गये। उन्होंने बडत्रे वेग से स्त्रुवा उठा लिया और आकाश में उसे दे मारा। साथ ही वे रोषवश अपने नेत्रों से आँसू बहाने लगे। फिर वे राजा उपरिचर से बोले - ‘मैंने जो यह भाग प्रस्तुत किया है, उसे भगवान् को मेरी आँखों के सामने प्रकट होकर ग्रहण करना चाहिये, यही न्याय है, इसमें संशय नहीं है’।

युधिष्ठिर ने पूछा - पितामह! जब सभी देवताओं ने प्रत्यक्ष दर्शन देकर अपने-अपने भाग ग्रहण किये, तब भगवान् विष्णु ने उस यज्ञ में पधारकर भी क्यों प्रत्यक्ष दर्शन नहीं दिया ? भीष्मजी ने कहा - युधिष्ठिर! इसका कारण बताता हूँ, सुनो। वे महान् भूपाल वसु तथा अन्य सम्पूर्ण सदस्य मिलकर उस समय रोष में भरे हुए मुनि बृहस्पति को मनाने लगे। सब लोग शान्तचित्त होकर उनसे बोले- ‘मुने! आप रोष न करें। आपने जो रोष किया है, यह सत्ययुग का धर्म नहीं है। ‘बृहस्पते! जिनको यह भाग समर्पित किया गया है वे भगवान् कभी क्रोध नहीं करते। हम और आप डनहें स्वेच्छा से नहीं देख सकते हैं। जिसपर वे कृपा करते हैं वही उनका दर्शन कर पाता है’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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