महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 8 श्लोक 1-22

अष्‍टम (8) अध्याय: भीष्म पर्व (जम्बूखण्‍डविनिर्माण पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: अष्‍टम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद

रमणक, हिरण्‍यक, श्रृंगवान् पर्वत तथा ऐरावतवर्ष का वर्णन

धृतराष्ट्र बोले- संजय! तुम सभी वर्षों और पर्वतों के नाम बताओ और जो उन पर्वतों पर निवास करने वाले हैं उनकी स्थिति का भी यथावत् वर्णन करो। संजय बोले- राजन्! श्‍वेत के दक्षिण और निषध के उत्तर रमणक नामक वर्ष हैं। वहाँ जो मनुष्‍य जन्म लेते हैं, वे उत्तम कुल से युक्त और देखने में अत्यन्त प्रिय होते हैं। वहाँ के सब मनुष्‍य शत्रुओं से रहित होते हैं। महाराज! रमणकवर्ष के मनुष्‍य सदा प्रसन्नचित्त होकर साढे़ ग्यारह हजार वर्षों तक जीवित रहते हैं। नील के दक्षिण और निषध के उत्तर हिरण्‍यवर्ष है, जहाँ हैरण्‍यवती नदी बहती हैं। महाराज! वहीं विहंगों में उत्तम पक्षिराज गरुड़ निवास करते हैं। वहाँ के सब मनुष्‍य यक्षों की उपासना करने वाले, धनवान, प्रियदर्शन, महाबली तथा प्रसन्नचित्त होते हैं। जनेश्‍वर! वहाँ के लोग साढे़ बारह हजार वर्षों की आयु तक जीवित रहते हैं। मनुजेश्‍वर! वहाँ श्रृंगवान पर्वत के तीन ही विचित्र शिखर हैं। उनमें से एक मणिमय है, दूसरा अद्भुत सुवर्णमय है तथा तीसरा अनेक भवनों से सुशोभित एवं सर्वरत्नमय है। वहाँ स्वयंप्रभा नाम वाली शाण्डिली देवी नित्य निवास करती हैं।

जनेश्‍वर! श्रृंगवान पर्वत के उत्तर समुद्र के निकट ऐरावत नामक वर्ष है। अत: इन शिखरों से संयुक्त यह वर्ष अन्य वर्षों की अपेक्षा उत्तम हैं। वहाँ सूर्यदेव ताप नहीं देते हैं और न वहाँ के मनुष्‍य बूढे़ ही होते हैं। नक्षत्रों सहित चन्द्रमा वहाँ ज्योतिर्मय होकर सब ओर व्याप्त-सा रहता है। वहाँ के मनुष्‍य कमल की-सी कान्ति तथा वर्ण वाले होते हैं। उनके विशाल नेत्र कमलदल के समान सुशोभित होते हैं। वहाँ के मनुष्‍यों के शरीर से वि‍कसित कमलदलों के समान सुगन्ध प्रकट होती है। उनके शरीर से पसीने नहीं निकलते। उनकी सुगन्ध प्रिय लगती है। वे आहार (भूख-प्यास से) रहित और जितेन्द्रिय होते हैं। वे सबके सब देवलोक से च्युत (होकर वहाँ शेष पुण्‍य-का उपभोग करते) हैं! उनमें रजोगुण का सर्वथा अभाव होता है। भरतभूषण जनेश्‍वर! वे तेरह हजार वर्षों की आयु तक जीवित रहते हैं। क्षीरसागर के उत्तर तट पर भगवान् विष्‍णु निवास करते हैं, वे वहाँ सुवर्णमय रथ पर विराजमान हैं। उस रथ में आठ पहिये लगे हैं। उसका वेग मन के समान है। वह समस्त भूतों से युक्त, अग्नि के समान कान्तिमान, परम तेजस्वी तथा जाम्बूनद नामक सुवर्ण से विभूषित है।

भरतश्रेष्ठ! वे सर्वशक्तिमान सर्वव्यापी भगवान् विष्‍णु ही समस्त प्राणियों का संकोच और विस्तार करते हैं। वे ही करने वाले और कराने वाले हैं। राजन्! पृथ्‍वी, जन, तेज, वायु और आकाश सब कुछ वे ही हैं। वे ही समस्त प्राणियों के लिये यज्ञस्वरूप हैं। अग्नि उनका मुख है। वैशम्पायन जी कहते हैं- महाराज जनमेजय! संजय के ऐसा कहने पर महामना धृतराष्‍ट्र अपने पुत्रों के लिये चिन्ता करने लगे। कुछ देर तक सोच-विचार करने के पश्‍चात महातेजस्वी धृतराष्‍ट्र ने पुन: इस प्रकार कहा- ‘सूतपुत्र संजय! इसमें संदेह नहीं कि काल ही सम्पूर्ण जगत् का संहार करता हैं। फिर वहीं सबकी सृष्टि करता है। यहाँ कुछ भी सदा स्थिर रहने वाला नहीं है। भगवान् नर और नारायण समस्त प्राणियों के सुदृढ़ एवं सर्वज्ञ हैं। देवता उन्हें वैकुण्ठ और मनुष्‍य उन्हें शक्तिशाली विष्‍णु कहते हैं’।

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के अन्तर्गत जम्बूखण्‍ड-विनिर्माणपर्व में धृतराष्‍ट्रवाक्य-विषयक आठवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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