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महाभारत: उद्योग पर्व: षष्टितम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
दुर्योधन द्वारा आत्मप्रशंसा
- वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! पिता की यह बात सुनकर अत्यंत असहिष्णु दुर्योधन ने भीतर ही भीतर भारी क्रोध करके पुन: इस प्रकार कहा- (1)
- ‘नृपश्रेष्ठ! आप जो ऐसा मानते हैं कि कुंती के पुत्रों को जीतना असम्भव है, क्योंकि देवता उनके सहायक हैं,यह ठीक नहीं है। आपके मन से यह भय निकल जाना चाहिये। (2)
- ‘भरतनंदन! काम (राग), द्वेष, संयोग (ममता), लोभ और द्रोह (क्रोध) रूपी दोषों से रहित होने के कारण तथा दूषित भावों की उपेक्षा कर देने के कारण ही देवताओं ने देवत्व प्राप्त किया है। (3)
- ‘यह बात पूर्वकाल में द्वैपायन व्यास जी, महातपस्वी नारद जी तथा जगदग्निनंदन परशुराम जी ने हम लोगों को बतायी थी। (4)
- ‘भरतश्रेष्ठ! देवता मनुष्यों की भाँति काम, क्रोध, लोभ और द्वेषभाव से किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होते हैं। (5)
- ‘यदि अग्नि, वायु, धर्म, इन्द्र तथा दोनों अश्विनीकुमार भी कामना के वशीभूत होकर सब कार्यों में प्रवृत्त होने लग जाते, तब तो कुंतीपुत्रों को कभी दु:ख उठाना ही नहीं पड़ता। (6)
- ‘अत: भरतनंदन! आप किसी प्रकार भी ऐसी चिंता न करें; क्योंकि देवता सदा दिव्यभाव-शम आदि की ही अपेक्षा रखते हैं, काम, क्रोध आदि आसुर भावों की नहीं। (7)
- ‘तथापि यदि देवताओं में कामनावश द्वेष और लोभ लक्षित होता है तो उनमें देवत्व का अभाव हो जाने के कारण उनकी वह शक्ति हम लोगों पर कोई प्रभाव नहीं दिखा सकेगी, क्योंकि देवों में देवभाव की प्रधानता है। (8)
- ‘वैसे तो मुझमें भी दैवबल है ही; यदि मैं अभिमन्त्रित कर दूं तो सदा सम्पूर्ण लाकों को जलाकर भस्म कर डालने की इच्छा से प्रज्वलित हुई आग भी सब ओर से सिमटकर बुझ जायगी। (9)
- ‘भारत! यदि कोई ऐसा उत्कृष्ट तेज है, जिससे देवता युक्त हैं तो मुझे भी देवताओं से ही अनुपम तेज प्राप्त हुआ है, यह आप अच्छी तरह जान लें। (10)
- ‘राजन! मैं सब लोगों के देखते-देखते विदीर्ण होती हुई पृथ्वी तथा टूटकर गिरते हुए पर्वत शिखरों को भी मन्त्रबल से अभिमन्त्रित करके पहले की भाँति स्थापित कर सकता हूँ। (11)
- ‘इस चेतन-अचेतन और स्थावर-जंगम जगत के विनाश के लिये प्रकट हुई महान कोलाहलकारी भयंकर शिलावृष्टि अथवा आंधी को भी मैं सदा समस्त प्राणियों पर दया करके सबके देखते-देखते यहीं शांत कर सकता हूँ। (12-13)
- ‘मेरे द्वारा स्तम्भित किये हुए जल के ऊपर रथ और पैदल सेनाएं चल सकती हैं। एकमात्र मैं ही दैव तथा आसुर शक्तियों को प्रकट करने में समर्थ हूँ। (14)
- ‘मैं किसी कार्य के उद्देश्य से जिन-जिन देशों में अनेक अक्षौहिणी सेनाएं लेकर जाता हूँ, उनमें जहां-जहाँ मेरी इच्छा होती है, उन सभी स्थानों में मेरे घोड़ा अप्रतिहत गति से विचरते हैं। (15)
- ‘मेरे राज्य में सर्प आदि भयंकर जीव-जंतु नहीं हैं। यदि कोई भयंकर प्राणी हो तो भी वे मेरे मन्त्रों द्वारा सुरक्षित जीव-जंतुओं की कभी हिंसा नहीं करते हैं। (16)
- ‘महाराज! मेरे राज्य में रहने वाली प्रजा के लिये बादल प्रचुर जल बरसाता है, सम्पूर्ण प्रजा धर्म में तत्पर रहती है तथा मेरे राष्ट्र में अनावृष्टि और अतिवृष्टि आदि किसी प्रकार का भी उपद्रव नहीं है। (17)
- ‘जिनसे मैं द्वेष रखता हूँ, उनकी रक्षा का साहस अश्र्विनी कुमार, वायु, अग्नि, मरुद्गणों सहित इन्द्र तथा धर्म में भी नहीं है। (18)
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