महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 141 श्लोक 1-21

एकचत्‍वारिंशदधिकशततम (141) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: एकचत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद

कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने के निश्चित विचार का प्रतिपादन करते हुए समरयज्ञ के रूपक का वर्णन करना

  • कर्ण ने कहा- केशव! आपने सौहार्द, प्रेम, मैत्री और मेरे हित की इच्छा से जो कुछ कहा है, यह नि:संदेह ठीक है। (1)
  • श्रीकृष्ण! जैसा कि आप मानते हैं, धर्मशास्त्रों के निर्णय के अनुसार मैं धर्मत: पाण्‍डु का ही पुत्र हूँ। इन सब बातों को मैं अच्छी तरह जानता और समझता हूँ। (2)
  • जनार्दन! कुन्ती ने कन्यावस्था में भगवान सूर्य के संयोग से मुझे गर्भ में धारण किया था और मेरा जन्म हो जाने पर उन सूर्य देव की आज्ञा से ही मुझे जल में विसर्जित कर दिया था। (3)
  • श्रीकृष्ण! इस प्रकार मेरा जन्म हुआ है। अत: मैं धर्मत: पाण्डु का ही पुत्र हूँ; परंतु कुन्ती देवी ने मुझे इस तरह त्याग दिया, जिससे मैं सकुशल नही रह सकता था। (4)
  • मधुसूदन! उसके बाद अधिरथ नामक सूत मुझे जल में देखते ही निकालकर अपने घर ले आये और बड़े स्नेह से मुझे अपनी पत्नी राधा की गोद में दे दिया। (5)
  • उस समय मेरे प्रति अधिक स्नेह के कारण राधा के स्तनों में तत्काल दूध उतर आया। माधव! उस अवस्था में उसी ने मेरा मल-मूत्र उठाना स्वीकार किया। (6)
  • अत: सदा धर्मशास्त्रों के श्रवण में तत्पर रहने वाला मुझ जैसा धर्मज्ञ पुरुष राधा के मुख का ग्रास कैसे छीन सकता है? उसका पालन-पोषण न करके उसे त्या‍ग देने की क्रूरता कैसे कर सकता है? (7)
  • अधिरथ सूत भी मुझे अपना पुत्र ही समझते हैं और मैं भी सौहार्दवश उन्हें सदा से अपना पिता ही मानता आया हूँ। (8)
  • माधव! उन्होंने मेरे जात कर्म आदि संस्कार करवाये तथा जनार्दन! उन्होंने ही पुत्र प्रेमवश शास्त्रीय विधि से ब्राह्मणों द्वारा मेरा ‘वसुषेण’ नाम रखवाया। (9)
  • श्रीकृष्ण! मेरी युवावस्था होने पर अधिरथ ने सूतजाति की कई कन्याओं के साथ मेरा विवाह करवाया। अब उनसे मेरे पुत्र और पौत्र भी पैदा हो चुके हैं। जनार्दन! उन स्त्रियों में मेरा हृदय कामभाव से आसक्त रहा है। (10-11)
  • गोविन्द! अब मैं सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य पाकर, सुवर्ण की राशियाँ लेकर अथवा हर्ष या भय के कारण भी वह सब सम्बन्‍ध मिथ्या नही करना चाहता। (12)
  • श्रीकृष्ण! मैंने दुर्योधन का सहारा पाकर धृतराष्ट्र के कुल में रहते हुए तेरह वर्षो तक अकण्टक राज्य का उपभोग किया है। (13)
  • वहाँ मैंने सूतों के साथ मिलकर बहुत-से यज्ञों का अनुष्ठान किया है तथा उन्हीं के साथ रहकर अनेकानेक कुलधर्म एवं वैवाहिक कार्य सम्पन्न किये हैं। (14)
  • वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण! दुर्योधन ने मेरे ही भरोसे हथियार उठाने तथा पाण्डवों के साथ विग्रह करने का साहस किया है। (15)
  • अत: अच्युनत! मुझे द्वैरथ युद्ध में सव्यसाची अर्जुन के विरुद्ध लोहा लेने तथा उनका सामना करन के लिये उसने चुन लिया है। (16)
  • जनार्दन! इस समय मैं वध, बन्धन, भय अथवा लोभ से भी बुद्धिमान धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन के साथ मिथ्या व्यवहार नही करना चाहता। (17)
  • हृषीकेश! अब यदि मैं अर्जुन के साथ द्वैरथ युद्ध न करूँ तो यह मेरे और अर्जुन दोनों के लिये अपयश की बात होगी। (18)
  • मधुसूदन! इसमें संदेह नहीं कि आप मेरे हित के लिये ही ये सब बातें कहते हैं। पाण्डव आपके अधीन है; इसलिये आप उनसे जो कुछ भी कहेंगे, वह सब वे अवश्य ही कर सकते हैं। (19)
  • परंतु मधुसूदन! मेरे और आपके बीचमें जो यह गुप्तक परामर्श हुआ है, उसे आप यहीं तक सीमित रखें। यादवनन्दन! ऐसा करने में ही मैं यहाँ सब प्रकार से हित समझता हूँ। (20)
  • अपनी इन्द्रियों को संयम में रखने वाले धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर यदि यह जान लेंगे कि मैं (कर्ण) कुन्ती का प्रथम पुत्र हूँ, तब वे राज्य ग्रहण नही करेंगे। (21)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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