महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 88 श्लोक 1-19

अष्‍टाशीतितम (88) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

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महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: अष्‍टाशीतितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


उलूपी और चित्रांगदा के सहित बभ्रुवाहन का रत्न-आभूषण आदि से सत्‍कार तथा अश्वमेध-यज्ञ का आरम्‍भ

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! पाण्‍डवों के महल में प्रवेश करके महाबाहु बभ्रुवाहन ने अत्यन्त मधुर वचन बोलकर अपनी दादी कुन्ती के चरणों में प्रणाम किया। इसके बाद देवी चित्रांगदा और कौरव्य नाग की पुत्री उलूपी ने एक साथ ही विनीत भाव से कुन्‍ती और द्रौपदी के चरण छुए। फिर सुभद्रा तथा कुरुकुल की अन्‍य स्‍त्रियों से भी वे यथायोग्‍य मिलीं। उस समय कुन्‍ती ने उन दोनों को नाना प्रकार के रत्न भेंट में दिये। द्रौपदी, सुभद्रा तथा अन्‍य स्‍त्रियों ने भी अपनी ओर से नाना प्रकार के उपहार दिये। तत्‍पश्‍चात वे दोनों देवियाँ बहुमूल्‍य शय्याओं पर विराजमान हुईं।

अर्जुन के हित की कामना से कुन्‍ती देवी ने स्‍वयं ही उन दोनों का बड़ा सत्‍कार किया। कुन्‍ती से सत्‍कार पाकर महातेजस्‍वी राजा बभ्रुवाहन महाराज धृतराष्‍ट्र की सेवा में उपस्‍थित हुआ और उसने विधिपूर्वक उनका चरण-स्‍पर्श किया। इसके बाद राजा युधिष्‍ठिर और भीमसेन आदि सभी पाण्‍डवों के पास जाकर उस महातेजस्‍वी नरेश ने विनयपूर्वक उनका अभिवादन किया। उन सब लोगों में प्रेमवश उसे छाती से लगा लिया और उसका यथोचित सत्‍कार किया। इतना ही नहीं, बभ्रुवाहन पर प्रसन्‍न हुए उन पाण्‍डव महारथियों ने उसे बहुत धन दिया। इसी प्रकार वह भूपाल प्रद्युम्न की भाँति विनीत भाव से शंख-चक्र-गदाधारी भगवान श्रीकृष्‍ण की सेवा में उपस्‍थित हुआ।

श्रीकृष्‍ण ने इस राजा को एक बहुमूल्‍य रथ प्रदान किया जो सुनहरी साजों से सुसज्‍जित, सबके द्वारा अत्‍यन्‍त प्रशंसित और उत्तम था। उसमें दिव्‍य घोड़े जुते हुए थे। तत्‍पश्‍चात धर्मराज युधिष्‍ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव ने अलग-अलग बभ्रुवाहन का सत्‍कार करके उसे बहुत धन दिया।

उसके तीसरे दिन सत्‍यवतीनन्‍दन प्रवचन कुशल महर्षि व्‍यास युधिष्‍ठिर के पास आकर बोले- ‘कुन्‍तीनन्‍दन! तुम आज से यज्ञ आरम्‍भ कर दो। उसका समय आ गया है। यज्ञ का शुभ मुहुर्त उपस्‍थित है और याजकगण तुम्‍हें बुला रहे हैं। राजेन्‍द्र! तुम्‍हारे इस यज्ञ में किसी बात की कमी नहीं रहेगी। इसलिये यह किसी भी अंग से हीन न होने के कारण अहीन (सर्वांगपूर्ण) कहलायेगा। इसमें सुवर्ण नामक द्रव्‍य की अधिकता होगी; इसलिये यह बहुसुवर्णक नाम से विख्‍यात होगा। महाराज! यज्ञ के प्रधान कारण ब्राह्मण ही हैं; इसलिये तुम उन्‍हें तिगुनी दक्षिणा देना। ऐसा करने से तुम्‍हारा यह एक ही यज्ञ तीन यज्ञों के समान हो जायगा।

नरेश्वर! यहाँ बहुत-सी दक्षिणा वाले तीन अश्‍वमेध- यज्ञों का फल पाकर तुम ज्ञाति वध के पाप से मुक्‍त हो जाओगे। कुरुनन्‍दन! तुम्‍हें जो अश्वमेध-यज्ञ का अवभृथ- स्‍नान प्राप्‍त होगा, वह पवित्र, पावन और उत्तम है।’ परम बुद्धिमान व्‍यास जी के ऐसा कहने पर धर्मात्‍मा एवं तेजस्‍वी राजा युधिष्‍ठिर ने अश्‍वमेध-यज्ञ की सिद्धि के लिये उसी दिन दीक्षा ग्रहण की। फिर उन महाबाहु नरेश ने बहुत- से अन्‍न की दक्षिणा से युक्‍त तथा सम्‍पूर्ण कामना और गुणों से सम्‍पन्‍न उस अश्‍वमेध नामक महायज्ञ का अनुष्‍ठान आरम्‍भ कर दिया। उसमें वेदों के ज्ञाता और सर्वज्ञ याजकों ने सम्‍पूर्ण कर्म किये-कराये। वे सब ओर घूम-घूमकर सत्‍पुरुषों-द्वारा शिक्षित कर्म का सम्‍पादन करते-कराते थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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