महाभारत वन पर्व अध्याय 171 श्लोक 1-24

एकसप्तत्यधिकशततम (171) अध्‍याय: वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: एकसप्तत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद


दानवों के मायामय युद्ध का वर्णन

अर्जुन बोले- महाराज! तदनन्तर चारों ओर से पत्थरों की बड़ी भारी वर्षा आरम्भ हो गयी। वृक्षों के बराबर ऊँचे शिलाखण्ड भूमि में गिरने लगे, इससे मुझे बड़ी पीड़ा हुई। तब मैंने महेन्द्रास्त्र से अभिमन्त्रित वज्रतुल्य वेगवान बाणों द्वारा उस महासमर में गिरने वाले समस्त शिलाखण्डों को चूर-चूर कर दिया। पत्थरों की वर्षा के चूर्ण होते ही सब ओर आग प्रकट हो गयी। फिर तो वहाँ आग की चिनगारियों के समूह की भाँति पत्थर का चूर्ण पड़ने लगा। तदनन्तर मेरे बाणों से वह पत्थरों की वर्षा शान्त होने पर महत्तर जल-वृष्टि आरम्भ हो गयी। मेरे पास ही सर्पों के समान मोटी जलधाराएं गिरने लगीं। आकाश से प्रचण्ड शक्तिशाली सहस्रों धाराएं बरसने लगीं, जिन्होंने न केवल आकाश को ही, अपितु सम्पूर्ण दिशाओं और उपदिशाओं को भी सब ओर से ढक लिया। धाराओं की वर्षा, हवा के झकोरों और दैत्यों की गर्जना से कुछ भी जान नहीं पड़ता था। स्वर्ग से लेकर पृथ्वी तक एक सूत्र में आबद्ध-सी होकर पृथ्वी पर सब ओर जल की धाराएं लगातार गिर रहीं थीं, जिन्होंने वहाँ मुझे मोह में डाल दिया था।

तब मैंने वहाँ देवराज इन्द्र के द्वारा प्राप्त हुए दिव्य विशोषणास्त्र का प्रयोग किया, जो अत्यन्त तेजस्वी और भयंकर था। उससे वर्षा का वह सारा जल सूख गया। भारत! जब मैंने पत्थरों की वर्षा शान्त कर दी औ पानी की वर्षा को भी सोख लिया, तब दानव लोग मुझ पर मायामय अग्नि और वायु का प्रयोग करने लगे। फिर तो मैंने वारुणास्त्र से वह सारी आग बुझा दी और महान् शैलास्त्र का प्रयोग करके मायामय वायु का वेग कुण्डित कर दिया। भारत! उस माया का निवारण हो जाने पर वे रणोन्मत दानव एक ही समय अनेक प्रकार की माया का प्रयोग करने लगे। फिर तो भयानक अस्त्रों की तथा अग्नि, वायु और पत्थरों की बड़ी भारी वर्षा होने लगी, जो रोंगटे खड़े कर देने वाली थी। उस मायामयी वर्षा ने युद्ध में मुझे बड़ी पीड़ा दी। तदनन्तर चारों ओर महाभयानक अन्धकार छा गया। घोर एवं दुःसह तिमिरराशि से सम्पूर्ण लोकों के आच्छादित हो जाने पर मेरे रथ के घोड़े युद्ध से विमुख हो गये और मातलि भी लड़खड़ाने लगे। उनके हाथ से घोड़ों के लगाम और चाबुक पृथ्वी पर गिर पड़े और वे भयभीत होकर बार-बार मुझसे पूछने लगे- 'भरतश्रेष्ठ अर्जुन! तुम कहाँ हो?' मातलि के बेसुध होने पर मेरे मन में भी अत्यन्त भय समा गया।

तब सुध-बुध खोये हुए मातलि ने मुझ भयभीत योद्धा से इस प्रकार कहा- 'निष्पाप कुन्तीकुमार! प्राचीन काल में अमृत की प्राप्ति के लिये देवताओं और दैत्यों में अत्यन्त घोर संग्राम हुआ था, जिसे मैंने अपनी आंखों देखा है। शम्बरासुर के वध के समय भी अत्यन्त भयानक युद्ध हुआ था। उसमें भी मैंने देवराज इन्द्र के सारथि का कार्य संभाला था। इसी प्रकार वृत्रासुर के वध के समय भी मैंने ही घोड़ों की बागडोर हाथ में ली थी। विरोचनकुमार बलि का अत्यन्त भयंकर महासंग्राम भी मेरा देखा हुआ है। ये बड़े-बड़े भयानक युद्ध मैंने देखे हैं, उनमें भाग लिया है, परंतु पाण्डुनन्दन! आज से पहले कभी भी मैं इस प्रकार अचेत नहीं हुआ था। जान पड़ता है, विधाता ने आज समस्त प्रजा का संहार निश्चित किया है, अवश्य ऐसी ही बात है। जगत के संहार के अतिरिक्त अन्य समय में ऐसे भयानक युद्ध का होना सम्भव नहीं हैं'। मातलि का यह वचन सुनकर मैंने स्वयं ही अपने-आपको संभाला और दानवों के उस महान् मायाबल का निवारण करते हुए भयभीत मातलि से कहा- 'सूत! आप डरें मत। स्थिरतापूर्वक रथ पर बैठे रहें और देखें, मेरी इन भुआजों में कितना बल है? मेरे गाण्डीव धनुष तथा अस्त्रों का कैसा प्रभाव है? आज मैं अपने अस्त्रों की माया से इन दानवों की इस भयंकर माया तथा घोर अन्धकार का विनाश किये देता हूं'।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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