महाभारत वन पर्व अध्याय 294 श्लोक 1-20

चतुर्नवत्यधिकद्विशततम (294) अध्‍याय: वन पर्व (पतिव्रतामाहात्म्यपर्व)

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महाभारत: वन पर्व: चतुर्नवत्यधिकद्विशततम अध्यायः 1-20 श्लोक का हिन्दी अनुवाद


सावित्री का सत्यवान् के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय

मार्कण्डेयजी कहते हैं- भरतनन्दन युधिष्ठिर! एक दिन मद्रराज अश्वपति अपनी सभा में बैठे हुए देवर्षि नारद जी के साथ मिलकर बातें कर रहे थे। उसी समय सावित्री सब तीर्थों और आश्रमों में घूम फिरकर मन्त्रियों के साथ अपने पिता के घर आ पहुँची। वहाँ पिता को नारद जी के साथ बैठे हुए देखकर शुभलक्षणा सावित्री ने दोनों के चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया।

नारद जी ने पूछा- राजन्! आपकी यह पुत्री कहाँ गयी थी और कहाँ से आ रही है, अब तो यह युवती हो गयी है। आप किसी वर के साथ इसका विवाह क्यों नहीं कर देते हैं?

अश्वपति ने कहा- देवर्षे! इसे मैंने इसी कार्य से भेजा था और यह अभी-अभी लौटी है। इसने अपने लिये जिस पति का वरण किया है, उसका नाम इसी के मुख से सुनिये।

मार्कण्डेय जी कहते हैं- युधिष्ठिर! पिता के यह कहने पर कि ‘बेटी! तू अपनी यात्रा का वृत्तान्त विस्तार के साथ बताना’, शुभलक्षणा सावित्री उनकी आज्ञा मानकर उस समय इस प्रकार बोली। सावित्री ने कहा- पिताजी! शाल्व देश में द्युमत्सेन नाम से प्रसिद्ध एक धर्मात्मा क्षत्रिय राजा राज्य करते थे। पीछे वे अंधे हो गये। यह अवसर पाकर उनके पूर्वशत्रु एक पड़ोसी राजा ने आक्रमण किया और उन बुद्धिमान नरेश का राज्य हर लिया। तब अपनी छोटी अवस्था के पुत्र वाली पत्नी के साथ वे वन में चले आये और विशाल वन के भीतर रहकर बड़े-बड़े व्रतों का पालन करते हुए तपस्या करने लगे। उनके एक पुत्र हैं सत्यवान, जो पैदा तो नगर में हुए हैं, परंतु उनका पालन-पोषण एवं संवर्धन तपोवन में हुआ है। वे ही मेरे योग्य पति हैं। उन्हीं का मैंने मन-ही-मन वरण कर लिया है। इस राजकुमार के पिता सदा सत्य बोलते हैं। इसकी माता भी सत्यभाषण करती है। इसलिये ब्राह्मणों ने इसका नाम ‘सत्यवान’ रख दिया है। इस बालक को अश्व बहुत प्रिय हैं। यह मिट्टी के अश्व बनाया करता है और चित्र लिखते समय भी अश्वों को ही अंकित करता है, अतः इसे ‘चित्राश्व’ भी कहते हैं।

राजा ने पूछा- देवर्षे! इस समय पितृभक्त राजकूमार सत्यवान तेजस्वी, बुद्धिमान्, क्षमावान् और शूरवीर तो हैं न?

नारद जी ने कहा- वह राजकुमार सूर्य के समान तेजस्वी, बृहस्पति के समान बुद्धिमान, इन्द्र के समान वीर और पृथ्वी के समान क्षमाशील है।

अश्वपति ने पूछा- क्या राजपुत्र सत्यवान दानी, ब्राह्मणभक्त, रूपवान, उदार अथवा प्रियदर्शन भी है?

नारद जी ने कहा- सत्यवान अपनी शक्ति के अनुसार दान देने में संकृतिनन्दन रन्तिदेव के समान है तथा उशीनर पुत्र शिवि के समान ब्राह्मणभक्त और सत्यवादी है। वह ययाति की भाँति उदार और चन्द्रमा के समान प्रियदर्शन है। द्युमत्सेन का वह बलवान् पुत्र रूपवान तो इतना है मानो अश्विनीकुमारों में से ही एक हो। वह जितेन्द्रिय, मृदुल, शूरवीर, सत्यस्वरूप, इन्द्रियसंयमी, सबके प्रति मैत्रीभाव रखने वाला, अदोषदर्शी, लज्जावान और कान्तिमान् है। तप और शील में बढ़े हुए वृद्ध पुरुष संक्षेप में उसके विषय में ऐसा कहते हैं कि राजकुमार सत्यवान में सरलता का नित्य निवास है और उस सद्गुण में उसकी अविचल स्थिति है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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