महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 33 श्लोक 1-16

त्रयस्त्रिंश (33) अध्‍याय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: त्रयस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

धृतराष्‍ट्र-विदुर-संवाद[1]

वैशम्‍पायनजी कहते हैं-जनमेजय![2] महाबुद्धिमान राजा धृतराष्‍ट्र ने द्वारपाल से कहा-‘मैं विदुर से मिलना चाहता हूँ। उन्‍हें यहाँ शीघ्र बुला लाओ’। धृतराष्‍ट्र का भेजा हुआ वह दूत जाकर विदुर से बोला-‘महामते! हमारे स्‍वामी महाराज धृतराष्‍ट्र आपसे मिलना चाहते हैं।' उसके ऐसा कहने पर विदुरजी राजमहल के पास जाकर बोले-‘द्वारपाल! धृतराष्‍ट्र को मेरे आने की सूचना दे दो’। द्वारपाल ने जाकर कहा- महाराज! आपकी आज्ञा से विदुर जी यहाँ आ पहुँचे हैं, वे आपके चरणों का दर्शन करना चाहते हैं। मुझे आज्ञा दीजिये, उन्‍हें क्‍या कार्य बताया जाय? धृतराष्‍ट्र ने कहा- महाबुद्धिमान दूरदूर्शी विदुर को भीतर ले आओ, मुझे इस विदुर से मिलने में कभी भी अड़चन नहीं है। द्वारपाल विदुर के पास आकर बोला-विदुरजी! आप बुद्धिमान महाराज धृतराष्‍ट्र के अन्‍त:पुर में प्रवेश कीजिये। महाराज ने मुझसे कहा है कि मुझे विदुर से मिलने में कभी अड़चन नहीं है।


वैशम्‍पायनजी कहते हैं-राजन! तदनंतर विदुर धृतराष्‍ट्र के महल के भीतर जाकर चिंता में पड़े हुए राजा से हाथ जोड़कर बोले- 'महाप्राज्ञ! मैं विदुर हूँ, आपकी आज्ञा से यहाँ आया हूँ। यदि मेरे करने योग्‍य कुछ काम हो तो मैं उपस्थित हूँ, मुझे आज्ञा कीजिये।' धृतराष्‍ट्र ने कहा- विदुर! बुद्धिमान संजय आया था, वह मुझे बुरा-भला कहकर चला गया है। कल सभा में वह अजातशत्रु युधिष्ठिर के वचन सुनायेगा। आज में उस कुररुवीर युधिष्ठिर की बात न जान सका- यही मेरे अंगों का जला रहा है ओर इसी ने मुझे अब तक जगा रखा है। तात! मैं चिंता से जलता हुआ अभीतक जग रहा हूँ। मेरे लिये जो कल्‍याण की बात समझो, वह कहो; क्‍योंकि हम लोगों में तुम्‍हीं धर्म और अर्थ के ज्ञान में निपुण हो। संजय जब से पाण्‍डवों के यहाँ से लौटकर आया है, तब से मेरे मन को पूर्ण शांति नहीं मिलती। सभी इन्द्रियां वि‍कल हो रही हैं। कल वह क्‍या कहेगा, इसी बात की मुझे इस समय बड़ी भारी चिंता हो रही है।

विदुरजी बोले- राजन! जिसका बलवान के साथ विरोध हो गया है, उस साधनहीन दुर्बल मनुष्‍य को, जिसका सब कुछ हर लिया गया है, उस कामी को तथा चोर को रात में नींद नहीं आती। धृतराष्‍ट्र ने कहा- विदुर! मैं तुम्‍हारे धर्मयुक्‍त तथा कल्‍याण करने वाले सुंदर वचन सुनना चाहता हूँ; क्‍योंकि इस राजर्षिवंश में केवल तुम्‍हीं विद्वानों के भी माननीय हो। विदुरजी बोले- महाराज धृतराष्‍ट्र! श्रेष्‍ठ लक्षणों से सम्‍पन्‍न राजा युधिष्ठिर तीनों लोकों के स्‍वामी हो सकते हैं। वे आपके आज्ञाकारी थे, पर आपने उन्‍हें वन में भेज दिया। आप धर्मात्‍मा और धर्म के जानकार होते हुए भी आँखों की ज्‍योति से हीन होने के कारण उन्‍हें पहचान न सके, इसी से उनके अत्‍यंत विपरीत हो गये और उन्‍हें राज्‍य का भाग देने में आपकी सम्‍मति नहीं हुई।

युधिष्ठिर में क्रूरता का अभाव, दया, धर्म, सत्‍य तथा पराक्रम है; वे आप में पूज्‍यबुद्धि रखते हैं। इन्‍हीं सद्गणों के कारण वे सोच-विचारकर चुपचाप बहुत-से क्‍लेश सह रहे हैं। आप दुर्योधन, शकुनि, कर्ण तथा दु:शासन- जैसे अयोग्‍य व्‍यक्तियों पर राज्‍य का भार रखकर कैसे कल्‍याण चाहते हैं? अपने वास्‍तविक स्‍वरूप का ज्ञान, उद्योग, दु:ख सहने की शक्ति और धर्म में स्थिरता- ये गुण, जिस मनुष्‍य-को पुरुषार्थ से च्‍युत नहीं करते, वही पण्डित कहलाता है। जो अच्‍छे कर्मों का सेवन करता है और बुरे कर्मों से दूर रहता है, साथ ही जो आस्तिक और श्रद्धालु है, उसके वे सद्गुण पण्डित होने के लक्षण हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इस ३३वें अध्‍याय से प्रारम्‍भ होकर ४०वें अध्‍याय तक ‘विदुरनीति’ है।
  2. संजय के चले जाने पर

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