महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 72 श्लोक 1-11

द्विसप्ततितम (72) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: द्विसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर का श्रीकृष्‍ण से अपना अभिप्राय निवेदन करना, श्रीकृष्‍ण का शान्तिदूत बनकर कौरव- सभा में जाने के लिये उद्यत होना और इस विषय में उन दोनों का वार्तालाप
  • वैशम्पायन जी कहते हैं- भारत! इधर संजय के चले जाने पर धर्मराज युधिष्ठिर ने भीमसेन, अर्जुन, माद्रीकुमार नकुल-सहदेव, विराट, द्रुपद तथा केकयदेशीय महारथियों के पास जाकर कहा- ‘हम लोग शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण के पास चलकर उनसे कौरव सभा में जाने के लिये प्रार्थना करें।
  • ‘वे वहाँ जाकर ऐसा प्रयत्न करें, जिससे हमें भीष्‍म, द्रोण, बुद्धिमान बाह्लीक तथा अन्य कुरुव‍ंशियों के साथ रणक्षेत्र में युद्ध न करना पड़े।।
  • ‘यही हमारा पहला ध्‍येय है और यही हमारे लिये परम कल्याण की बात है।’ राजा युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर वे सब लोग प्रसन्नचित्त होकर भगवान श्रीकृष्‍ण के समीप गये।
  • उस समय शत्रुओं के लिये दु:सह प्रतीत होने वाले वे सभी नरश्रेष्‍ठ सभासद भूपालगण पाण्‍डवों के साथ श्रीकृष्‍ण के नि‍कट उसी प्रकार गये, जैसे देवता इन्द्र के पास जाते हैं।
  • समस्त यदुवं‍शियों में श्रेष्‍ठ दशार्हकुलनन्दन जनार्दन श्रीकृष्‍ण के पास पहुँचकर कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर इस प्रकार कहा-। (1)
  • ‘मित्रवत्सल श्रीकृष्‍ण! मित्रों की सहायता के लिये यही उपयुक्त अवसर आया है। मैं आपके सिवा दूसरे किसी को ऐसा नहीं देखता, जो इस विपत्ति से हम लोगों का उद्धार करे। (2)
  • ‘आप माधव की शरण में आकर हम सब लोग निर्भय हो गये हैं और व्यर्थ ही घमंड दिखाने वाले धृतराष्‍ट्र पुत्र दुर्योधन तथा उसके मन्त्रियों को हम स्वयं युद्ध के लिये ललकार रहे हैं। (3)
  • ‘शत्रुदमन! जैसे आप वृष्णिवंशियों की सब प्रकार की आपत्तियों से रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आपको पाण्‍डवों की भी रक्षा करनी चाहिये। प्रभों! इस महान भय से आप हमारी रक्षा कीजिये।' (4)
  • श्री भगवान बोले- महाबाहो! यह मैं आपकी सेवा-के लिये सर्वदा प्रस्तुत हूँ। आप जो कुछ कहना चाहते हों, कहें। भारत! आप जो-जो कहेंगे, वह सब कार्य मैं निश्‍चय ही पूर्ण करूंगा। (5)
  • युधिष्ठिर ने कहा- श्रीकृष्‍ण! पुत्रों सहित राजा धृतराष्‍ट्र क्या करना चाहते हैं, यह सब तो आपने सुन ही लिया। संजय ने मुझसे जो कुछ कहा है, वह धृतराष्‍ट्र का ही मत है। संजय धृतराष्‍ट्र का अभिन्नस्वरूप होकर आया था। उसने उन्हीं के मनोभाव को प्रकाशित किया है। दूत संजय ने स्वामी की कही हुई बात को ही दुहराया है; क्योंकि यदि वह उसके विपरीत कुछ कहता तो वध के योग्य माना जाता। (6-7)
  • राजा धृतराष्‍ट्र को राज्य का बड़ा लोभ है। उनके मन में पाप बस गया है। अत: वे अपने-अनुरूप व्यवहार न करके राज्य दिये बिना ही हमारे साथ संधि का मार्ग ढूंढ़ रहे हैं। (8)
  • प्रभो! हम तो यही समझकर कि धृतराष्‍ट्र अपनी प्रतिज्ञा पर स्थिर रहेंगे, उन्हीं की आज्ञा से बारह वर्ष वन में रहे और एक वर्ष अज्ञातवास किया। श्रीकृष्‍ण! हमने अपनी प्रतिज्ञा भंग नहीं की है; इस बात को हमारे साथ रहने वाले सभी ब्राह्मण जानते हैं। (9-10)
  • परंतु राजा धृतराष्‍ट्र तो लोभ में डूबे हुए हैं। वे अपने धर्म की ओर नहीं देखते हैं। पुत्रों में आसक्त होकर सदा उन्हीं के अधीन रहने के कारण वे अपने मूर्ख पुत्र दुर्योधन की ही आज्ञा का अनुसरण करते हैं। (11)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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