महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 74 श्लोक 1-22

चतुःसप्ततितम (74) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: चतुःसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद


ब्राह्मण और क्षत्रिय के मेल से लाभ का प्रतिपादन करने वाला मुचुकुन्द का उपाख्यान

भीष्मजी कहते हैं-राजन्! राष्ट्र का योगक्षेम राजा के अधीन बताया जाता हैं; परंतु राजा का योगक्षेम पुरोहित के अधीन हैं। जहाँ ब्राह्मण अपने तेज के अदृष्ट भय का निवारण करता हैं और राजा अपने बाहुबल से दृष्ट भय को दूर करता हैं, वह राज्य-सुख से उत्तरोत्तर उन्नति करता हैं। इस विषय में विज्ञ पुरुष मुचुकुन्द और राजा कुबेर के संवाद रूप एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। कहतें हैं, पृथ्वीपति राजा मुचुकुन्द ने इस पृथ्वी को जीतकर अपने बल की परीक्षा लेने के लिये अलकापति कुबेर पर चढ़ाई की। तब राजा कुबेर ने उनका सामना करने के लिये राक्षसों की सेना भेजी। उन राक्षसों ने मुचुकुन्द की सेनाओं को कुचलना आरम्भ किया। इस प्रकार अपनी सेना को मारी जाती देखकर शत्रुदमन राजा मुचुकुन्द ने अपने विद्वान पुरोहित वसिष्ठ जी को इसके लिये उलाहना दिया। तब धर्मांत्माओं में श्रेष्ठ महर्षिं वसिष्ठ जी ने घोर तपस्या करके उन राक्षसों का विनाश कर ड़ाला और राजा के लिये विजय पाने का मार्गं प्राप्त कर लिया। इसके बाद राजा कुबेर ने, अपनी सेना को मरते देखकर राजा मुचुकुन्द को दर्शंन दिया और इस प्रकार कहा।

कुबेर बोले-राजन्! पहले भी तुम्हारे समान बलवान् राजा हो चुके हैं और उन्हें भी पुरोहितों की सहायता प्राप्त थी, परन्तु मेरे साथ यहाँ तुम जैसा बर्ताव कर रहे हो, वैसा किसी ने नहीं किया था। वे भूपाल भी अस्त्र विद्या के ज्ञाता तथा बलवान् थे और मुझे सुख एवं दुःख देने में समर्थं ईश्वर मानकर मेरे पास आते और मेरी उपासना करते थे। महाराज! यदि तुम्हारी भुजाओं में कुछ बल हैं तो उसे दिखाओं। ब्राह्मण के बल पर इतना घमण्ड़ क्यों कर रहे हो?

यह सुनकर मुचुकुन्द कुपित हो उठे और धनाध्यक्ष कुबेर से यह न्याययुक्त, रोष रहित तथा सम्भ्रमशून्य वचन बोले-’राजराज! ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों की उत्पत्ति का स्थान एक ही हैं। दोनों को स्वयम्भू ब्रह्माजी ने ही पैदा किया हैं। यदि उनका बल और प्रयत्न अलग-अलग हो जाय तो वे संसार की रक्षा नहीं कर सकते’। ’ब्राह्मणों में सदा तप और मन्त्र का बल उपस्थित होता है और क्षत्रियों में अस्त्र तथा भुजाओं का’। ’अलकापते! अतः ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों को एक साथ मिलकर ही प्रजा का पालन करना चाहिये। मैं भी इसी नीति के अनुसार कार्यं कर रहा हूँ; फिर आप मेरी निन्दा क्यों करते हैं?’ तब कुबेर ने पुरोहित सहित राजा मुचुकुन्द से कहा-’पृथ्वीपते! मैं ईश्वर की आज्ञा के बिना न तो किसी को राज्य देता हूँ और न भगवान की अनुमति के बिना दूसरे का राज्य छीनता ही हूँ। इस बात को तुम अच्छी तरह समझ लो। यद्यपि ऐसी ही बात हैं तो भी आज मैं तुम्हें इस सारी पृथ्वी का राज्य दे रहा हूँ। तुम मेरी दी हुई इस सम्पूर्णं पृथ्वी का शासन करो’। उनके ऐसा कहने पर राजा मुचुकुन्द ने इस प्रकार उत्तर दिया। मुचुकुन्द बोले-राजाधिराज! मैं आपके दिये हुए राज्य को नहीं भोगना चाहता। मेरी तो यही इच्छा हैं कि मैं अपने बाहुबल से उपार्जित राज्य का उपभोग करूँ। भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर! राजा मुचुकुन्द को बिना किसी घबराहट के इस प्रकार क्षत्रिय धर्म में स्थित हुआ देख कुबेर को बड़ा विस्मय हुआ। तदनन्तर क्षत्रिय धर्म का ठीक-ठीक पालन करने वाले राजा मुचुकुन्द ने अपने बाहुबल से प्राप्त की हुई इस वसुधा का शासन किया। इस प्रकार जो धर्मज्ञ राजा पहले ब्राह्मण का आश्रय लेकर उसकी सहायता से राज्यकार्यं मे प्रवृत होता है, वह बिना जीती हुई पृथ्वी को भी जीतकर महान् यश का भागी होता है। ब्राह्मण को प्रतिदिन स्नान करके जलसम्बन्धी कृत्य-संध्या-वंदन, तर्पंण आदि कर्म करने चाहिये और क्षत्रिय को सदा शस्त्रविद्या का अभ्यास बढ़ाना चाहिये। इस भूतल पर जो कोई भी वस्तु हैं, वह सब इन्हीं दोनों के अधीन हैं।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वं के अन्तर्गंत राजधर्मांनुशासनपर्वं मे मुचुकुन्द उपाख्यानविषयक चैहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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