महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 6 श्लोक 1-17

षष्‍ठ (6) अध्याय: सौप्तिक पर्व

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महाभारत: सौप्तिक पर्व: षष्‍ठ अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


अश्वत्थामा का शिविर-द्वार पर एक अद्भुत पुरुष को देखकर उस पर अस्त्रों का प्रहार करना और अस्त्रों के अभाव में चिन्तित हो भगवान शिव की शरण में जाना

धृतराष्ट्र ने पूछा- संजय! अश्वत्थामा को शिविर के द्वार पर खड़ा देख कृतवर्मा और कृपाचार्य ने क्‍या किया? यह मुझे बताओ। संजय ने कहा- राजन! कृतवर्मा और कृपाचार्य को आमन्त्रित करके महारथी अश्वत्थामा क्रोधपूर्ण हृदय से शिविर के द्वार पर आया। वहाँ उसने चन्द्रमा और सूर्य के समान तेजस्वी एक विशालकाय अद्भुत प्राणी को देखा, जो द्वार रोककर खड़ा था, उसे देखते ही रोंगटे खड़े हो जाते थे। उस महापुरुष ने व्‍याघ्र का ऐसा चर्म धरण कर रखा था, जिससे बहुत अधिक रक्‍त चू रहा था, वह काले मृगचर्म की चादर ओढ़े और सर्पों का यज्ञोपवीत पहने हुए थे। उसकी विशाल और मोटी भुजाएं नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लिये प्रहार करने को उद्यत जान पड़ती थी। उनमें बाजूबंदों के स्थान में बड़े-बड़े सर्प बँधें हुए थे तथा उसका मुख आग की लपटों से व्‍याप्त दिखायी देता था। उसने मुँह फैला रखा था, जो दाढ़ों के कारण विकराल जान पड़ता था। वह भयानक पुरुष सहस्रों विचित्र नेत्रों से सुशोभित था।

उसके शरीर और वेष का वर्णन नहीं किया जा सकता। सर्वथा उसे देख लेने पर पर्वत भी भय के मारे विदीर्ण हो सकते थे। उसके मुख से, दोनों नासिकाओं से, कानों से और हजारों नेत्रों से भी सब ओर आग की बड़ी-बड़ी लपटे निकल रहीं थीं। उसके तेज की किरणों से शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले सैकड़ों, हजारों विष्णु प्रकट हो रहे थे। सम्‍पूर्ण जगत को भयभीत करने वाले उस अद्भुत प्राणी को देखकर द्रोणकुमार अश्वत्थामा भयभीत नहीं हुआ, अपितु उसके ऊपर दिव्य अस्त्रों की वर्ष करने लगा। परंतु जैसे बडवानल समुद्र की जलराशि को पी जाता है, उसी प्रकार उस महाभूत ने अश्वत्थामा के छोड़े हुए सारे बाणों-को अपना ग्रास बना लिया।

अश्वत्थामा ने जो-जो बाण छोड़े, उन सबको वह महाभूत निगल गया। अपने बाण-समूहों को व्‍यर्थ हुआ देख अश्वत्थामा ने प्रज्ज्वलित अग्निशिखा के समान देदीप्यमान रथ शक्ति छोड़ी। उसका अग्रभाग तेज से प्रकाशित हो रहा था। वह रथशक्ति उस महापुरुष से टकराकर उसी प्रकार विदीर्ण हो गयी, जैसे प्रलयकाल में आकाश से गिरी हुई बड़ी भारी उल्‍का सूर्य से टकराकर नष्ट हो जाती है। तब अश्वत्थामा ने सोने की मूँठ से सुशोभित तथा आकाश के समान निर्मल कान्तिवाली अपनी दिव्‍य तलवार तुरंत ही म्‍यान से बाहर निकाली, मानो प्रज्‍वलित सर्प को बिल से बाहर निकाला गया हो। फिर बुद्धिमान द्रोणपुत्र ने वह अच्‍छी-सी तलवार तत्काल ही उस महाभूत पर चला दी; परंतु वह उसके शरीर में लगकर उसी तरह विलीन हो गयी, जैसे कोई नेवला बिल में घुस गया हो। तदनन्तर कुपित हुए अश्वत्थामा ने उसके ऊपर अपनी इन्द्रध्वज के समान प्रकाशित होने वाली गदा चलायी; परंतु वह भूत उसे भी लील गया। इस प्रकार जब उसके सारे अस्त्र-शस्त्र समाप्त हो गये, तब वह इधर-उधर देखने लगा। उस समय उसे सारा आकाश असंख्‍य विष्णुओं से भरा दिखायी दिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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