महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 294 श्लोक 1-15

चतुर्नवत्‍यधिकद्विशततम (294) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: चतुर्नवत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

पराशरगीता - ब्राह्मण और शूद्र की जीविका, निन्‍दनीय कर्मों के त्‍याग की आज्ञा, मनुष्‍यों में आसुरभाव की उत्‍पत्ति और भगवान शिव के द्वारा उसका निवारण तथा स्‍वधर्म के अनुसार कर्तव्‍यपालन का आदेश

पराशर जी कहते हैं- राजन! ब्राह्मण के यहाँ प्रतिग्रह से मिला हुआ, क्षत्रिय के घर युद्ध से जीतकर लाया हुआ, वैश्‍य के पास न्‍यायपूर्वक (खेती आदि से) कमाया हुआ और शूद्र के यहाँ सेवा से प्राप्‍त हुआ थोड़़ा-सा भी धन हो तो उसकी बड़ी प्रशंसा होती है तथा धर्म के कार्य में उसका उपभोग हो तो वह महान फल देने वाला होता है। शूद्र को तीनों वर्णों का नित्‍य सेवक बताया जाता है। यदि ब्राह्मण जीविका के अभाव में क्षत्रिय अथवा वैश्‍य के धर्म से जीवन-निर्वाह करे तो वह पतित नहीं होता है; किंतु जब वह शूद्र के धर्म को अपनाता है, तब तत्‍काल पतित हो जाता है। जब शूद्र सेवावृत्ति से जीविका न चला सके, तब उसके लिये भी व्‍यापार, पशुपालन तथा शिल्‍पकला आदि जीवन-निर्वाह करने की आज्ञा है। रंगमंच पर स्त्री आदि के वेष में उतरकर नाचना या खेल दिखाना, बहुरूपिये का काम करना, मदिरा और मांस बेचकर जीविका चलाना तथा लोहे और चमड़े की बिक्री करना - ये सब काम (सब के लिये) लोक में निन्दित माने गये हैं।

जिसके घर में पूर्व परम्‍परा से ये काम न होते आये हों, उसे स्‍वयं इनका आरम्‍भ नहीं करना चाहिये। जिसके यहाँ पहले से इन्‍हें करने की प्रथा हो, वह भी छोड़ दे तो महान धर्म होता है- ऐसा शास्त्र का निर्णय है। यदि कोई जगत‍ में प्रसिद्ध हुआ पुरुष घमण्‍ड में आकर या मन में लोभ भरा रहने के कारण पापाचरण करने लगे तो उसका वह कार्य अनुकरण करने योग्‍य नहीं बताया गया है।

पुराणों में सुना जाता है कि पहले अधिकाशं मनुष्‍य संयमी, धार्मिक तथा न्‍यायोचित आचार का ही अनुसरण करने वाले थे। उस समय अपराधियों को धिक्‍कार मात्र का ही दण्‍ड दिया जाता है। राजन! इस जगत में सदा मनुष्‍यों के धर्म की ही प्रशंसा होती आयी है। धर्म में बढ़े-चढ़े लोग इस भूतल पर केवल सदगुणों का ही सेवन करते हैं। तात! जनेश्‍वर! परंतु उस धर्म को असुर नहीं सह सके। वे क्रमश: बढ़ते हुए प्रजा के शरीर में समा गये। तब प्रजाओं में धर्म को नष्ट करने वाला दर्प प्रकट हुआ। फिर जब प्रजाओं के मन में दर्प आ गया, तब क्रोध का भी प्रादुर्भाव हो गया। राजन! तदनन्‍तर क्रोध से आक्रान्‍त होने पर मनुष्‍यों के लज्‍जायुक्‍त सदाचार का लोप हो गया। उनका संकोच भी जाता रहा। इसके बाद उनमें मोह की उत्‍पत्ति हुई। मोह से घिर जाने पर उनमें पहले-जैसी विवेकपूर्ण दृष्टि नहीं रह गयी; अत: वे परस्‍पर एक-दूसरे का विनाश करके अपने-अपने सुख को बढ़ाने की चेष्‍ठा करने लगे। उन बिगड़े हुए लोगों को पाकर धिक्‍कार का दण्‍ड उन्‍हें राह पर लाने में सफल न हो सका। सभी मनुष्‍य देवता और ब्राह्मणों का अपमान करके मनमाने तौर पर विषय-भोगों का सेवन करने लगे। ऐसा अवसर उपस्थित होने पर सम्‍पूर्ण देवता अनेक रूपधारी, अधिक गुणशाली, धीरज स्‍वभाव देवेश्‍वर भगवान शिव की शरण में गये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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