महाभारत वन पर्व अध्याय 190 श्लोक 1-24

नवत्यधिकशततम (190) अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: नवत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद


युगान्तकालिक कलियुग के समय के बर्ताव का तथा कल्कि-अवतार का वर्णन

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने महामुनि मार्कण्डेय से अपने साम्राज्य में जगत् की भावी गतिविधि के विषय में पुनः इस प्रकार प्रश्न किया। युधिष्ठिर बोले- वक्ताओं में श्रेष्ठ! भृगुवंशविभूषण महर्षे! हमने आपके मुख से युग के आदि में संघटित हुई उत्पति और प्रलय के सम्बन्ध में बड़े आश्चर्य की बातें सुनी हैं। अब मुझे इस कलियुग के विषय में पुनः विशेष रूप से सुनने का कुतूहल हो रहा है। जब सारे धर्मों का उच्छेद हो जायेगा, उस समय क्या शेष रह जायेगा? युगान्तकाल में कलियुग के मनुष्यों का बल-पराक्रम कैसा होगा? उनके आहार-विहार कैसे होंगे? उनकी आयु कितनी होगी और उनके परिधान-वस्त्राभूषण कैसे होंगे? कलियुग के किस सीमा तक पहुँच जाने पर पुनः सत्ययुग आरम्भ हो जायेगा? मुने! इन सब बातों का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये; क्योंकि आपकी कथा बड़ी विचित्र होती है।

युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर मुनिश्रेष्ठ महर्षि मार्कण्डेय ने वृष्णिप्रवर श्रीकृष्ण तथा पाण्डवों को आनन्दित करते हुए पुनः इस प्रकार कहा। मार्कण्डेय बोले- भरतश्रेष्ठ राजन्! मैंने देवाधिदेव भगवान् बालमुकुन्द की कृपा से पूर्वकाल में, निकृष्ट कलिकाल के प्राप्त होने पर सम्पूर्ण लोकों के भावी वृत्तान्त के विषय में जो कुछ देखा-सुना या अनुभव किया है, वह बताता हूं, सुनो और समझो। भरतश्रेष्ठ! सत्ययुग में मनुष्यों के भीतर वृषरूप धर्म अपने चारों पादों से युक्त होने के कारण सम्पूर्ण रूप में प्रतिष्ठित होता है। उसमें छल-कपट या दम्भ नहीं होता। किंतु त्रेता में वह धर्म अधर्म के एक पाद से अभिभूत होकर अपने तीन अंशों से ही प्रतिष्ठित होता है। द्वापर में धर्म आधा ही रह जाता है। आधे में अधर्म आकर मिल जाता है। परंतु भरतश्रेष्ठ! कलियुग आने पर अधर्म अपने तीन अंशों द्वारा सम्पूर्ण लोकों को आक्रान्त करके स्थित होता है और धर्म केवल एक पाद से मनुष्यों में प्रतिष्ठित होता है। पाण्डुनन्दन! प्रत्येक युग में मनुष्यों की आयु, वीर्य, बुद्धि, बल तथा तेज क्रमशः घटते जाते हैं।

युधिष्ठिर! अब कलियुग के समय का वर्णन सुनो। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी जातियों के लोग कपटपूर्वक धर्म का आचरण करेंगे और धर्म का जाल बिछाकर दूसरे लोगों को ठगते रहेंगे। अपने को पण्डित मानने वाले लोग सत्य का त्याग कर देंगे। सत्य की हानि होने से उनकी आयु थोड़ी हो जायेगी और आयु की कमी होने के कारण वे अपने जीवन-निर्वाह के योग्य विद्या प्राप्त नहीं कर सकेंगे। विद्या के बिना ज्ञान न होने से उन सबको लोभ दबा लेगा। फिर लोभ और क्रोध के वशीभूत हुए मूढ़ मनुष्य कामनाओं में फंसकर आपस में वैर बांध लेंगे और एक-दूसरे के प्राण लेने की घात में लगे रहेंगे। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य-ये आपस में संतानोत्पादन करके वर्णसंकर हो जायेंगे। वे सभी तपस्या और सत्य से रहित हो शूद्रों के समान हो जायेंगे। अन्त्यज (चाण्डाल आदि) क्षत्रिय वैश्य आदि के कर्म करेंगे और क्षत्रिय-वैश्य आदि चाण्डालों के कर्म अपना लेंगे, इसमें संशय नहीं हैं।

युगान्तकाल आने पर लोगों की ऐसी ही दशा होगी। वस्त्रों में सन के बने हुए वस्त्र अच्छे समझे जायेंगे। धानों में कोदो का आदर होगा। उस युगक्षय के समय पुरुष केवल स्त्रियों से ही मित्रता करने वाले होंगे। कितने ही लोग मछली के मांस से जीविका चलायेंगे। गायों के नष्ट हो जाने के कारण मनुष्य भेड़ और बकरी का भी दूध दुहकर पीयेंगे। जो लोग सदा व्रत धारण करके रहने वाले हैं, वे भी युगान्त काल में लोभी हो जायेंगे। लोग एक-दूसरे को लूटेंगे और मारेंगे। युगान्तकाल के मनुष्य जपरहित, नास्तिक और चोरी करने वाले होंगे। नदियों के किनारे की भूमि को कुदालों से खोदकर लोग वहाँ अनाज बोयेंगे। उन अनाजों में भी युगान्तकाल के प्रभाव से बहुत कम फल लगेंगे। जो सदा (परान्न का त्याग करके) व्रत का पालन करने वाले लोग हैं, वे भी उस समय लोभवश देवयज्ञ तथा श्राद्ध में एक-दूसरे के यहाँ भोजन करेंगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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