महाभारत वन पर्व अध्याय 14 श्लोक 1-22

चतुर्दश (14) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍य पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: चतुर्दश अध्याय: श्लोक 1- 22 का हिन्दी अनुवाद


द्यूत के समय न पहुँचने में श्रीकृष्ण के द्वारा शाल्व के साथ युद्ध करने और सौभ विमान सहित उसे नष्ट करने का संक्षिप्त वर्णन


युधिष्ठिर ने कहा- वृष्णिकुल को आनन्दित करने वाले श्रीकृष्ण! जब यहाँ द्यूत क्रीड़ा का आयोजन हो रहा था, उस समय तुम द्वारका में क्यों अनुपस्थित रहे? उन दिनों तुम्हारा निवास कहाँ था और उस प्रवास के द्वारा तुमने कौन सा कार्य सिद्ध किया?

श्रीकृष्ण ने कहा- भरतवंशशिरोमणे! कुरुकुलभूषण! मैं उन दिनों शाल्व के सौभ नामक नगराकार विमान को नष्ट करने के लिये गया हुआ था। इसका क्या कारण था, वह बतलाता हूँ, सुनिये।

भरतश्रेष्ठ! आपके राजसूय यज्ञ में अग्रपूजा के प्रश्न को लेकर जो क्रोध के वशीभूत हो इस कार्य को नहीं सह सका था और इसीलिये जिस दुरात्मा महातेजस्वी महाबाहु एवं महायशस्वी दमघोषनन्दन वीर राजा शिशुपाल को मैंने मार डाला था; उसकी मृत्यु का समाचार सुनकर शाल्व प्रचण्ड रोष से भर गया। भारत! मैं तो यहाँ हस्तिनापुर में था और वह हम लोगों से सूनी द्वारकापुरी जा पहुँचा। राजन! वहाँ वृष्णिवंश के श्रेष्ठकुमारों ने उसके साथ युद्ध किया। वह इच्छानुसार चलने वाले सौभ नामक विमान पर बैठ कर आया और क्रूर मनुष्य की भाँति यादवों की हत्या करने लगा। उस खोटी बुद्धि वाले शाल्व ने वृष्णिवंश के बहुतेरे बालकों का वध करके नगर के सब बगीचों को उजाड़ डाला। महाबाहो! उसने यादवों से पूछा- ‘वह वृष्णिकुल का कलंक मन्दात्मा वसुदेवपुत्र कृष्ण कहाँ हैं? उसे युद्ध की बड़ी इच्छा रहती है, आज उसके घमंड को मैं चूर कर दूँगा। आनर्त निवासियों! सच-सच बतला दो। वह कहाँ है? जहाँ होगा, वहीं जाऊँगा और कंस तथा केशी का संहार करने वाले उस कृष्ण को मारकर ही लौटूँगा। मैं अपने अस्त्र-शस्त्रों को छूकर सौगन्ध खाता हूँ कि अब कृष्ण को मारे बिना नहीं लौटूँगा।'

सौभ विमान का स्वामी शाल्व संग्राम भूमि में मेरे युद्ध की इच्छा रखकर चारों ओर दौड़ता और सबसे यही पूछता था कि ‘वह कहाँ है, कहाँ है?‘ राजन! साथ ही वह यह भी कहता था कि ‘आज उस नीच पापाचारी और विश्वासघाती कृष्ण को शिशुपाल वध के अमर्ष के कारण मैं यमलोक भेज दूँगा। उस पापी ने मेरे भाई राजा शिशुपाल को मार गिराया है, अतः मैं भी उसका वध करूँगा। मेरा भाई शिशुपाल अभी छोटी अवस्था का था, दूसरे वह राजा था, तीसरे युद्ध के मुहाने पर खड़ा नहीं था, चौथे असावधान था, ऐसी दशा में उस वीर की जिसने हत्या की है, उस जनार्दन को मैं अवश्य मारूँगा।'

कुरुनन्दन! महाराज! इस प्रकार शिशुपाल के लिये विलाप करके मुझ पर आक्षेप करता हुआ वह इच्छानुसार चलने वाले सौभ विमान द्वारा आकाश में ठहरा हुआ था। कुरुश्रेष्ठ! यहाँ से द्वारका जाने पर मैंने, मार्तिकावतक देश के निवासी दुष्टात्मा एवं दुर्बुद्धि राजा शाल्व ने मेरे प्रति जो दुष्टतापूर्ण बर्ताव किया था (आक्षेपपूर्ण बातें कही थीं), वह सब कुछ सुना। कुरुनन्दन! तब मेरा मन भी रोष से व्याकुल हो उठा। राजन! फिर मन-ही-मन कुछ निश्चय करके मैंने शाल्व के वध का विचार किया। कुरुप्रवर! पृथ्वीपते! उसने आनर्त देश में जो महान संहार मचा रखा था, वह मुझ पर जो आक्षेप करता था तथा उस पापाचारी का घमंड जो बहुत बढ़ गया था, वह सब सोच कर मैं सौभनगर का नाश करने के लिये प्रस्थित हुआ। मैंने सब ओर उसकी खोज की तो वह मुझे समुद्र के एक द्वीप में दिखायी दिया। नरेश्वर! तदनन्तर मैंने पांचजन्य शंख बजाकर शाल्व को समरभूमि मे बुलाया और स्वयं भी युद्ध के लिये उपस्थित हुआ। वहाँ सौम निवासी दानवों के साथ दो घड़ी तक मेरा युद्ध हुआ और मैंने सब को वश में करके पृथ्वी पर मार गिराया। महाबाहो! यही कार्य उपस्थित हो गया था, जिससे मैं उस समय न आ सका। लौटकर ज्यों ही सुना कि हस्तिनापुर में दुर्योधन की उद्दण्डता के कारण जूआ खेला गया (और पाण्डव उसमें सब कुछ हारकर वन को चले गये); तब अत्यन्त दु:ख मे पड़े हुए आप लोगों को देखने के लिये मैं तुरंत यहाँ चला आया।


इस प्रकार श्रीमहाभारत के वनपर्व के अंतर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में सौभवधोपाख्यान विषयक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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