महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 4 श्लोक 1-20

चतुर्थ (4) अध्याय :अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: चतुर्थ अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


आजमीढ के वंश का वर्णन तथा विश्वामित्र जन्‍म की कथा और उनके पुत्रों के नाम

भीष्‍म जी ने कहा- "तात! कुन्‍तीनन्‍दन! पूर्वकाल में विश्वामित्र जी ने जिस प्रकार ब्राह्मणत्‍व तथा ब्रह्मर्षित्‍व प्राप्‍त किया, वह प्रसंग यर्थाथ रूप से बता रहा हूँ, सुनो। भरतवंश में अजमीढ नाम से प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं। भरतश्रेष्‍ठ! वे राजा अजमीढ यज्ञकर्ता एवं धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ थे। उनके पुत्र महाराज जह्नु हुए, जिन महात्‍मा नरेश के समीप जाकर गंगा जी पुत्री भाव को प्राप्‍त हुई थीं। जह्नु पुत्र का नाम सिन्‍धुद्वीप था, जो पिता के समान ही गुणवान और महायशस्‍वी थे। सिन्‍धुद्वीप से महाबली राजा बलाकाश्‍व का जन्‍म हुआ था। बलाकाश्‍व का पुत्र वल्‍लभ नाम से प्रसिद्ध हुआ, जो साक्षात दूसरे धर्म के समान था। वल्‍लभ के पुत्र कुशिक हुए, जो इन्‍द्र के समान तेजस्‍वी थे। कुशिक के पुत्र महाराज गाधि हुए, जो दीर्घकाल तक पुत्रहीन रह गये। तब संतान की इच्‍छा से पुण्‍य कर्म करने के लिये वे वन में रहने लगे। वहाँ रहते समय सोमयाग करने से राजा के कन्‍या हुई, जिसका नाम सत्यवती था। भूतल पर कहीं भी उसके रूप और सौन्‍दर्य की तुलना नहीं थी।

उन दिनों च्यवन के पुत्र भृगुवंशी श्रीमान ऋचीक विख्‍यात तपस्‍वी थे और बड़ी भारी तपस्‍या में संलग्‍न रहते थे। उन्‍होंने राजा गाधि से उस कन्‍या को मांगा। शत्रुसूदन गाधि ने महात्‍मा ऋचीक को दरिद्र समझकर उन्‍हें अपनी कन्‍या नहीं दी। उनके इनकार कर देने पर जब महर्षि लौटाने लगे, तब नृपश्रेष्‍ठ गाधि ने उनसे कहा- "महर्षे! मुझे शुल्‍क दीजिये, तब आप मेरी पुत्री को विवाह द्वारा प्राप्‍त कर सकेंगे।" ऋचीक ने पूछा- "राजेन्‍द्र! मैं आपकी पुत्री के लिये आपको क्‍या शुल्‍क दूँ? आप निस्‍संकोच होकर बताइये। नरेश्‍वर! इसमें आपको कोई अन्‍यथा विचार नहीं करना चाहिए।" गाधि ने कहा- "भृगुनन्‍दन! आप मुझे शुल्‍क रूप में एक हज़ार ऐसे घोड़े ला दीजिये जो चन्द्रमा के समान कान्तिमान और वायु के समान वेगवान हों तथा जिनका एक-एक कान श्‍याम रंग का हो।"

भीष्‍म जी कहते हैं- "राजन! तब भृगुश्रेष्‍ठ च्‍यवनपुत्र शक्तिशाली महर्षि ऋचीक ने जल के स्‍वामी अदितिनन्‍दन वरुण देव के पास जाकर कहा- "देवशिरोमणे! मैं आप से चंद्रमा के समान कांतिमान तथा वायु के समान वेगवान एक हज़ार ऐसे घोड़ों की भिक्षा मांगता हूँ, जिनका एक ओर का कान श्‍याम रंग का हो।" तब अदितिनन्‍दन वरुण देव ने उन भृगुश्रेष्‍ठ ऋचीक से कहा- "बहुत अच्‍छा, जहाँ आपकी इच्‍छा होगी, वहीं से इस तरह के घोड़े प्रकट हो जायेंगे।" तदनन्‍तर ऋचीक के चिन्‍तन करते ही गंगा जी के जल से चन्‍द्रमा के समान कान्ति वाले एक हज़ार तेजस्‍वी घोड़े प्रकट हो गये। कन्‍नौज के पास ही गंगा जी का वह उत्‍तम तट आज भी मानवों द्वारा 'अश्‍वतीर्थ' कहलाता है।

तात! तब तपस्‍वी मुनियों में श्रेष्‍ठ ऋचीक मुनि ने प्रसन्‍न होकर शुल्‍क के लिये राजा गाधि को वे एक हज़ार सुन्‍दर घोड़े दे दिये। तब आश्‍चर्यचकित हुए राजा गाधि ने शाप के भय से डरकर अपनी कन्‍या को वस्‍त्राभूषणों से विभूषित करके भृगुनन्‍दन ऋचीक को दे दिया। ब्रह्माशिरोमणि ऋचीक ने उसका विधिवत पाणिग्रहण किया। वैसे तेजस्‍वी पति को पाकर उस कन्‍या को भी बड़ा हर्ष हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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