एकोनचत्वारिंशदधिकशततम (139) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर ने पूछा- महाबाहो! आपने यह सलाह दी है कि शत्रुओं पर विश्वास नहीं करना चाहिये। साथ ही यह कहा है कि कहीं भी विश्वास करना उचित नहीं है, परंतु यदि राजा सर्वत्र अविश्वास ही करे तो किस प्रकार वह राज्य संबंधी व्यवहार चला सकता है? राजन! यदि विश्वास से राजाओं पर महान भय आता है तो सर्वत्र अविश्वास करने वाला भूपाल अपने शत्रुओं पर विजय कैसे पा सकता है? पितामह! आपकी यह अविश्वास-कथा सुनकर तो मेरी बुद्धि पर मोह छा गया। कृपया आप मेरे इस संशय का निवारण कीजिये। भीष्म जी ने कहा- राजन! राजा ब्रह्मदत्त के घर में पूजनी चिड़िया के साथ जो उनका संवाद हुआ था, उसे ही तुम्हारे समाधान के लिये उपस्थित करता हूँ, सुनो। काम्पिल्य नगर में ब्रह्मदत्त नाम के एक राजा राज्य करते थे। उनके अन्त:पुर में पूजनी नाम से प्रसिद्ध एक चिड़िया निवास करती थी। वह दीर्घकाल तक उनके साथ रही थी। वह चिड़िया ‘जीवजीवक” नामक विशेष पक्षी के समान प्राणियों की बोली समझती थी तथा तिर्यग्योनि में उत्पन्न होने पर भी सर्वज्ञ एवं सम्पूर्ण तत्त्वों को जानने वाली थी। एक दिन उसने रनिवास में ही एक बच्चा दिया, जो बड़ा तेजस्वी था; उसी दिन उसके साथ ही राजा की रानी के गर्भ से भी एक बालक उत्पन्न हुआ। आकाश में विचरने वाली वह कृतज्ञ पूजनी चिड़िया प्रतिदिन समुद्र तट पर जाकर वहाँ से उन दोनों बच्चों के लिये दो फल ले आया करती थी। वह अपने बच्चे की पुष्टि के लिये एक फल उसे देती तथा राजा के बेटे की पुष्टि के लिये दूसरा फल उस राजकुमार को अर्पित कर देती थी। पूजनीय का लाया हुआ वह फल अमृत के समान स्वादिष्ट और बल तथा तेज की वृद्धि करने वाला होता था। वह बांरबार उस फल को ला-लाकर शीघ्रतापूर्वक उन दोनों को दिया करती थी। राजकुमार उस फल को खा-खाकर बड़ा हृष्ट-पुष्ट हो गया। एक दिन धाय उस राजपुत्र को गोद में लिये घूम रही थी। वह बालक ही तो ठहरा, बाल-स्वभाव वश आकर उसने उस चिड़िया के बच्चे को देखा और उसके साथ यत्नपूर्वक वह खेलने लगा। राजेन्द्र! अपने साथ ही पैदा हुए उस पक्षी को सूने स्थान में ले जाकर राजकुमार ने मार डाला और मारकर वह धाय की गोद में जा बैठा। राजन! तदनन्तर जब पूजनी फल लेकर लौटी तो उसने देखा कि राजकुमार ने उसके बच्चे को मार डाला है और वह धरती पर पड़ा है। अपने बच्चे की ऐसी दुर्गति देखकर पूजनी के मुख पर आँसुओं की धारा बह चली और वह दु:ख से संतप्त हो रोती हुई इस प्रकार कहने लगी- ‘क्षत्रिय में संगति निभाने की भावना नहीं होती। उसमें न प्रेम होता है, न सौहार्द। ये किसी हेतु या स्वार्थ से ही दूसरों को सान्त्वना देते हैं। जब इनका काम निकल जाता है, तब ये आश्रित व्यक्ति को त्याग देते हैं। ‘क्षत्रिय सबकी बुराई ही करते हैं। इन पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये। ये दूसरों का अपकार करके भी सदा उसे व्यर्थ सान्त्वना दिया करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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