महाभारत वन पर्व अध्याय 73 श्लोक 1-19

त्रिसप्ततितम (73) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: त्रिसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


ऋतुपर्ण का कुण्डिनपुर में प्रवेश, दमयन्ती का विचार तथा भीम के द्वारा ऋतुपर्ण का स्वागत

बृहदश्व मुनि कहते हैं- युधिष्ठिर! तदनन्तर शाम होते-होते सत्यपराक्रमी राजा ऋतुपर्ण विदर्भ राज्य में जा पहुँचे। लोगों ने राजा भीम को भी इस बात की सूचना दी। भीम के अनुरोध से राजा ऋतुपर्ण ने अपने रथ की घर्घराहट द्वारा सम्पूर्ण दिशा-विदिशाओं को प्रतिध्वनित करते हुए कुण्डिनपुर में प्रवेश किया। नल के घोड़े वहीं रहते थे, उन्होंने रथ का घोष सुना। सुनकर वह उतने ही प्रसन्न और उत्साहित हुए, जितने कि पहले नल के समीप रहा करते थे। दमयन्ती ने भी नल के रथ की घर्घराहट सुनी, मानो वर्षा काल में गरजते हुए मेघों का गम्भीर घोष सुनायी देता हो। वहाँ महाभयंकर रथनाद सुनकर उसे बड़ा विस्मय हुआ।

पूर्वकाल में राजा नल जब घोड़ों की बाग संभालते थे, उन दिनों उनके रथ से जैसी गम्भीर ध्वनि प्रकट होती थी, वैसी ही उस समय के रथ की घर्घराहट भी दमयन्ती और उसके घोड़ों को जान पड़ी। महल पर बैठे हुए मयूरों, गजशाला में बंधे हुए गजराजों तथा अश्वशाला के अश्वों ने राजा के रथ का वह अद्भुत घोष सुना। राजन! रथ की उस आवाज को सुनकर हाथी और मयूर अपना मुँह ऊपर उठाकर उसी प्रकार उत्कण्ठापूर्वक अपनी बोली बोलने लगे, जैसे वे मेघों की गर्जना होने पर बोला करते हैं।

(उस समय) दमयन्ती ने (मन-ही-मन) कहा- 'अहो! रथ की घर्घराहट इस पृथ्वी को गुंजाती हुई जिस प्रकार मेरे मन को आह्लाद प्रदान कर रही है, उससे जान पड़ता है, ये महाराज नल ही पधारे हैं। आज यदि असंख्य गुणों से विभूषित तथा चन्द्रमा के समान मुख वाले वीरवर नल को न देखूंगी तो अपने इस जीवन का अन्त कर दूंगी, इसमें संशय नहीं है। आज यदि मैं इन वीरशिरोमणि नल की दोनों भुजाओं के मध्य भाग में, जिसका स्पर्श अत्यन्त सुखद है, प्रवेश न कर सकी तो अवश्य जीवित न रह सकूंगी। यदि रथ द्वारा मेघ के समान गम्भीर गर्जना करने वाले निषध नरेश के स्वामी महाराज नल आज मेरे पास नहीं पधारेंगे तो मैं सुवर्ण के समान देदीप्यमान दहकती हुई आग में प्रवेश कर जाऊंगी। यदि सिंह के समान पराक्रमी और मतवाले हाथी के समान मस्तानी चाल से चलने वाले राजराजेश्वर नल मेरे पास नहीं आयेंगे तो आज अपने जीवन को नष्ट कर दूँगी, इसमें संशय नहीं है। मुझे याद नहीं कि स्वेच्छापूवर्क अर्थात् हंसी-मजाक में भी मैं कभी झुठ बोली हूं, स्मरण नहीं कि कभी किसी का मेरे द्वारा अपकार हुआ हो तथा यब भी स्मरण नहीं कि मैंने प्रतिज्ञा की हुई बात का उल्लंघन किया हो। मेरे निषधराज नल शक्तिशाली, क्षमाशील, वीर, दाता, सब राजाओं से श्रेष्ठ, एकान्त में भी नीच कर्म से दूर रहने वाले तथा परायी स्त्रियों के लिये नपुंसकतुल्य हैं। मैं (सदा) उन्हीं के गुणों का स्मरण करती और दिन-रात उन्हीं के परायण रहती हूँ। प्रियतम नल के बिना मेरा यह हृदय उनके विरह शोक से विदीर्ण-सा होता रहता है।'

भारत! इस प्रकार विलाप करती हुई दमयन्ती अचेत-सी हो गयी। वह पुण्यश्लोक नल के दर्शन की इच्छा से ऊंचे महल की छत पर जा चढ़ी। वहाँ से उसने देखा, वार्ष्‍णेय और बाहुक के साथ रथ पर बैठे हुए महाराज ऋतुपर्ण मध्यम कक्षा (परकोटे) में पहुँच गये हैं। तदनन्तर वार्ष्‍णेय और बाहुक ने उस उत्तम रथ से उतर कर घोड़े खोल दिये और रथ को एक जगह खड़ा कर दिया। इसके बाद राजा ऋतुपर्ण रथ के पिछले भाग से उतरकर भयानक पराक्रमी महाराज भीम से मिले।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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