महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 310 श्लोक 1-20

दशाधिकत्रिशततम (310) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: दशाधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 1-20का हिन्दी अनुवाद


याज्ञवल्‍क्‍य का राजा जनक को उपदेश— सांख्‍य मत के अनुसार चौबीस तत्‍वों और नो प्रकार के सर्गो का निरूपण

युधिष्ठिर ने कहा— पितामह! जो धर्म ओर अधर्म के बन्‍धन से मुक्‍त, सम्‍पूर्ण संशयों से रहित, जन्‍म और मृत्‍यु से रहित, पुण्‍य और पाप से मुक्‍त, नित्‍य, निर्भय, कल्‍याणमय, अक्षर, अव्‍यय (अविकारी), पवित्र एवं क्‍लेशरहित तत्‍व है, उसका आप हमें उपदेश कीजिये। भीष्‍मजी बोले — भरतनन्‍दन! इस विषय में मैं तुम्‍हें जनक और याज्ञवल्‍क्‍य का संवादरूप एक प्राचीन इतिहास सुनाऊँगा। एक बार देवरात के महायशस्‍वी पुत्र राजा जनक ने प्रश्‍न का रहस्‍य समझने वालों में श्रेष्‍ठ मुनिवर याज्ञवल्‍क्‍यजी से पूछा। जनक बोले—ब्रह्मर्षे! इन्द्रियाँ कितनी हैं ? प्रकृति के कितने भेद माने गये हैं ? अव्‍यक्‍त क्‍या है ? और उससे परे परब्रह्मा परमात्‍मा का क्या स्‍वरूप है ? सुष्टि और प्रलय क्‍या है ? और काल की गणना कैसे की जाती है ? विप्रेन्‍द्र! ये सब बताने की कृपा करें; क्‍योंकि हम लोग आपकी कृपा के अभिलाषी हैं। मैं इन बातों को नहीं जानता, इसलिये पूछ रहा हूँ। आप ज्ञान के भण्‍डार हैं, इसलिये आप ही से इन सब विषयों को सुनने की इच्‍छा हो रही है; जिससे सारा संदेह दूर हो जाय।

याज्ञवल्‍क्‍य जी ने कहा — भूपाल! सुनो, तुम जो कुछ पूछते हो, वह योग और विशेषत: सांख्‍य का परम रहस्‍यमय ज्ञान तुम्‍हें बताता हूँ। यद्यपि तुमसे कोई भी विषय अज्ञात नहीं है, फिर भी मुझसे पूछते हो तो कहना ही पड़ता है; क्‍योंकि किसी के पूछने पर जानकार मनुष्‍य को उसके प्रश्‍न का उत्‍तर देना ही चाहिये। यही सनातन धर्म है। प्रकृतियाँ आठ बतायी गयी हैं और उनके विकार सोलह। अध्‍यात्‍मशास्‍त्र का चिन्‍तन करने वाले विद्वान् आठ प्रकृतियों के नाम इस प्रकार बतलाते हैं—अव्‍यक्‍त (मूल प्रकृति), महत्तत्त्व, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्‍वी। ये आठ प्रकतियाँ कही गयीं। अब मुझसे विकारों का भी वर्णन सुनो— श्रोत्र, त्‍वचा, नेत्र, जिह्वा, पाँचवीं नासिका, शब्‍द, स्‍पर्श, रूप, रस, गन्‍ध, वाणी, हाथ, पैर, लिंग और गुदा। राजेन्‍द्र! उनमें पाँच कर्मेन्द्रियों और शब्‍द आदि पाँच विषयों की ‘विशेष’ संज्ञा है और ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ ‘सविशेष’ कहलाती हैं। मिथिलानरेश! ये ‘विशेष’ ओर ‘सविशेष’ तत्‍व पंचमहाभूतों में ही स्थित हैं। (ये सब मिलकर पंद्रह हैं) इनके साथ सोलहवाँ मन है। अध्‍यात्‍मगतिका चिन्‍तन करने वाले तत्‍वज्ञान– विशारद तुम और दूसरे विद्वान् भी इन्‍हीं को सोलह विकार कहते हैं। पृथ्‍वीनाथ! अव्‍यक्‍त प्रकृति से महतत्‍व (समष्टि बुद्धि) की उत्‍पत्ति होती है। इसे विद्वान् पुरुष प्रथम एवं प्राकृत सुष्टि कहते हैं। नरेश्‍वर! महतत्‍व से अंहकार प्रकट होता है, जो दूसरा सर्ग बताया जाता है। इसे बुद्धयात्‍मक सुष्टि माना गया है। अंहकार से मन उत्‍पन्‍न हुआ है, जो पंचभूत और शब्‍दादि गुणस्‍वरूप है। इसे तीसरा और आहंकारिक सर्ग कहा जाता है। राजन्! मन से पाँच सूक्ष्‍म महाभूत उत्‍पन्‍न हुए हैं। यह चौथा सर्ग है। मेरे मत के अनुसार इसे मानसी सृष्टि समझो। शब्‍द, स्‍पर्श, रूप, रस ओर गन्‍ध — ये पाँच विषय पंचमहाभूतों से उत्‍पन्‍न हुए हैं। यह पाँचवीं सृष्टि है। भूतचिन्‍तक विद्वान् इसे भौतिक सर्ग कहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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