महाभारत आदि पर्व अध्याय 142 श्लोक 1-19

द्विचत्‍वारिंशदधिकशततम (142) अध्‍याय: आदि पर्व (जतुगृहपर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: द्विचत्‍वारिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
धृतराष्ट्र के आदेश से पांडवों की वारणावत-यात्रा

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्‍तर राजा दुर्योधन और उनके छोटे भाइयों ने धन देकर तथा आदर-सत्‍कार करके सम्‍पूर्ण अमात्‍य आदि प्रकृतियों को धीरे-धीरे अपने वश में कर लिया। कुछ चतुर मन्‍त्री धृतराष्ट्र की आज्ञा से (चारों ओर) इस बात की चर्चा करने लगे कि ‘वारणावत नगर बहुत सुन्‍दर है। उस नगर में इस समय भगवान् शिव की पूजा के लिये जो बहुत बड़ा मेला लग रहा है, वह तो इस पृथ्‍वी पर सबसे अधिक मनोहर है। वह पवित्र नगर समस्‍त रत्‍नों से भरा-पूरा तथा मनुष्‍यों के मन को मोह लेने वाला स्‍थान है।’ धृतराष्ट्र के कहने से वे इस प्रकार की बातें करने लगे। राजन्! वारणावत नगर की रमणीयता का जब इस प्रकार (यत्र-तत्र) वर्णन होने लगा, तब पांडवों के मन में वहाँ जाने का विचार उत्‍पन्न हुआ। जब अम्बिकानन्‍दन राजा धृतराष्ट्र को यह विश्वास हो गया कि पांडव वहाँ जाने के लिये उत्‍सुक हैं, तब वे उनके पास जाकर इस प्रकार बोले- ‘बेटो! तुम लोगों ने सम्‍पूर्ण शास्त्र पढ़ लिये। आचार्य द्रोण और कृप से अस्त्र-शस्त्रों का विशेष रूप से शिक्षा प्राप्त कर ली। प्रिय पांडवों! ऐसी दशा में मैं एक बात सोच रहा हूँ। सब ओर से राज्‍य की रक्षा, राजकीय व्‍यवहारों की रक्षा तथा राज्‍य के निरन्‍तर हित-साधन में लगे रहने वाले मेरे ये मन्‍त्री लोग प्रतिदिन बार बार कहते हैं कि वारणावत नगर संसार में सबसे अधिक सुन्‍दर है। पुत्रों! यदि तुम लोग वारणावत नगर में उत्‍सव देखने जाना चाहो तो अपने कुटुम्बियों और सेवक वर्ग के साथ वहाँ जाकर देवताओं की भाँति विहार करो।

ब्राह्मणों और गाय को विशेष रूप से रत्न एवं धन दो तथ अत्‍यन्‍त तेजस्‍वी देवताओं के समान कुछ काल तक वहाँ इच्‍छानुसार विहार करते हुए परम सुख प्राप्त करो। तत्‍पश्‍चात् पुन: सुखपूर्वक इस हस्तिनापुर नगर में ही चले आना’। वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर धृतराष्ट्र की उस इच्‍छा का रहस्‍य समझ गये, परंतु अपने को असहाय जानकर उन्‍होंने ‘बहुत अच्‍छा’ कहकर उनकी बात मान ली। तदनन्‍तर युधिष्ठिर ने शंतनुनन्‍दन भीष्‍म, परमबुद्धिमान् विदुर, द्रोण, बाह्लिक, कुरुवंशी सोमदत्त, कृपाचार्य, अश्‍वत्‍थामा, भूरिश्रवा, अन्‍यान्‍य माननीय मन्त्रियों, तपस्‍वी ब्राह्मणों, पुरोहितों, पुरवासियों तथा यशस्विनी गान्‍धारी देवी से मिलकर धीरे-धीरे दीन भाव से इस प्रकार कहा- ‘हम महाराज धृतराष्ट्र की आज्ञा से रमणीय वारणावत नगर में, जहाँ बड़ा भारी मेला लग रहा है, परिवार सहित जाने वाले हैं। आप सब लोग प्रसन्नचित्त होकर हमें अपने पुण्‍यमय आशीर्वाद दीजिये। आपके आशीर्वाद से हमारी वृद्धि होगी और पापों का हम पर वश नहीं चल सकेगा’। पांडुनन्‍दन युधिष्ठिर के इस प्रकार कहने पर समस्‍त कुरुवंशी प्रसन्नवदन होकर पांडवों के अनुकूल हो कहने लगे- ‘पांडुकुमारो! मार्ग में सर्वदा सब प्राणियों से तुम्‍हारा कल्‍याण हो। तुम्‍हें कहीं से किसी प्रकार का अशुभ न प्राप्त हो’। तब राज्‍य-लाभ के लिये स्‍वस्तिवाचन करा समस्‍त आवश्‍यक कार्य पूर्ण करके राजकुमार पांडव वारणावत नगर को गये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत जतुगृह पर्व में वारणावतयात्राविषयक एक सौ बयालीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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