महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 144 श्लोक 1-15

चतुश्‍चत्‍वारिंशदधिकशततम (144) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

Prev.png

महाभारत: उद्योग पर्व: चतुश्‍चत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

विदुर की बात सुनकर युद्ध के भावी दुष्‍परिणाम से व्‍यथित हुई कुन्‍ती का बहुत सोच-विचार के बाद कर्ण के पास जाना

  • वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय! जब श्रीकृष्‍ण का अनुभव असफल हो गया और वे कौरवों के यहाँ से पाण्‍डवों के पास चले गये, तब विदुरजी कुन्‍ती के पास जाकर शोकमग्‍न से हो धीरे-धीरे इस प्रकार बोले- (1)
  • चिरंजीवी पुत्रों को जन्‍म देने वाली देवि! तुम तो जानती ही हो कि मेरी इच्‍छा सदा से यही रही है कि कौरवों और पाण्‍डवों में युद्ध न हो। इसके लिये मैं पुकार-पुकार कर कहता रह गया; परंतु दुर्योधन मेरी बात मानता ही नहीं है। (2)
  • राजा युधिष्ठिर चेदि, पांचाल तथा केकयदेश के वीर सैनिकगण, भीमसेन, अर्जुन, श्रीकृष्‍ण, सात्‍यकि तथा नकुल-सहदेव आदि श्रेष्‍ठ सहायकों से सम्‍पन्‍न हैं। (3)
  • वे युद्ध के लिये उद्यत हो उपप्‍लव्‍य नगर में छावनी डालकर बैठे हुए हैं, तथापि भाई-बन्‍धुओं के सौहार्दवश धर्म की ही आकांक्षा रखते हैं। बलवान होकर भी दुर्बल की भाँति संधि करना चाहते हैं। (4)
  • यह राजा धृतराष्‍ट्र बूढ़े हो जाने पर भी शान्‍त नहीं हो रहे हैं। पुत्रों के मद से उन्‍मत्‍त हो अधर्म के मार्ग पर ही चलते हैं। (5)
  • जयद्रथ, कर्ण, दु:शासन तथा शकुनि की खोटी बुद्धि से कौरव-पाण्‍डवों में परस्‍पर फूट ही रहेगी। (6)
  • कौरवों ने चौदहवें वर्ष में पाण्‍डवों को राज्‍य लौटा देने की प्रतिज्ञा करके भी उसका पालन नहीं किया। जिन्‍हें ऐसा अधर्मजनित कार्य भी, जो परस्‍पर बिगाड़ करने वाला है, धर्मसंगत प्रतीत होता है, उनका यह विकृत धर्म सफल होकर ही रहेगा अधर्म का फल है दु:ख और विनाश। वह उन्‍हें प्राप्‍त होगा ही। (7)
  • कौरवों द्वारा धर्म मानकर किये जाने वाले इस बलात्‍कार से किसको चिन्‍ता नहीं होगी। भगवान श्रीकृष्‍ण संधि के प्रयत्‍न में असफल होकर गये हैं अत: पाण्‍डव भी अब युद्ध के लिये महान उद्योग करेंगे। (8)
  • इस प्रकार यह कौरवों का अन्‍याय समस्‍त वीरों का विनाश करने वाला होगा इन सब बातों को सोचते हुए मुझे न तो दिन में नींद आती है और न रात में ही। (9)
  • विदुरजी ने उभय पक्ष के हित की इच्‍छा से ही यह बात कही थी। इसे सुनकर कुन्‍ती दु:ख से आतुर हो उठी और लम्‍बी साँस खींचती हुई मन-ही-मन इस प्रकार विचार करने लगी- (10)
  • अहो! इस धन को धिक्‍कार है, जिसके लिये परस्‍पर बन्‍धु-बान्‍धवों का यह महान संहार किया जाने वाला है। इस युद्ध में अपने सगे-सम्‍बन्‍धियों का भी पराभव होगा ही। (11)
  • पाण्‍डव, चेदि, पांचाल और चादव एकत्र होकर भरतवंशियों के साथ युद्ध करेंगे, इससे बढ़कर दु:ख की बात और क्‍या हो सकती है। (12)
  • युद्ध में निश्‍चय ही मुझे बड़ा भारी दोष दिखायी देता है; परंतु युद्ध न होने पर भी पाण्‍डवों का पराभव स्‍पष्‍ट है। निर्धन होकर मृत्‍यु को वरण कर लेना अच्‍छा है। परंतु बन्धु-बान्‍धवों का विनाश करके विजय पाना कदापि अच्‍छा नहीं है। (13)
  • 'यह सब सोचकर मेरे हृदय में बडा दु:ख हो रहा है। शान्‍तनुनन्‍दन पितामह भीष्‍म, योद्धाओं में श्रेष्‍ठ आचार्य द्रोण तथा कर्ण भी दुर्योधन के लिये ही युद्ध भूमि में उतरेंगे; अत: ये मेरे भय की ही वृद्धि कर रहे हैं। (14)
  • आचार्य द्रोण तो सदा हमारे हित की इच्‍छा रखने वाले हैं वे अपने शिष्‍यों के साथ कभी युद्ध नहीं कर सकते। इसी प्रकार पितामह भीष्‍म भी पाण्‍डवों के प्रति हार्दिक स्‍नेह कैसे नहीं रखेंगे? (15)


Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः