महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 182 श्लोक 1-22

द्वयशीत्यधिकशततम (182) अध्‍याय: उद्योग पर्व (अम्बोपाख्‍यान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: द्वयशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद

भीष्‍म और परशुराम का युद्ध

  • भीष्‍मजी कहते हैं- राजेन्द्र! तदनन्तर प्रात:काल जब सूर्यदेव उदित होकर प्रकाश में आ गये, उस समय मेरे साथ परशुरामजी का युद्ध पुन: प्रारम्भ हुआ। (1)
  • तत्पश्‍चात योद्धाओं में श्रेष्‍ठ परशुरामजी स्थिर रथ पर खडे़ हो जैसे मेघ पर्वत पर जल की बौछार करता है, उसी प्रकार मेरे ऊपर बाण समूहों की वर्षा करने लगे। (2)
  • उस समय मेरा प्रिय सुहृद सारथि बाण वर्षा से पीड़ित हो मेरे मन को विषाद में डालता हुआ रथ की बैठक से नीचे गिर गया। (3)
  • मेरे सारथि को अत्यन्त मोह छा गया था। वह बाणों के आघात से पृथ्‍वी पर गिरा और अचेत हो गया। (4)
  • राजेन्द्र! परशुरामजी के बाणों से अत्यन्त पीड़ित होने के कारण दो ही घड़ी में सूत ने प्राण त्याग दिये। उस समय मेरे मन में बड़ा भय समा गया। (5)
  • उस सारथि के मारे जाने पर मैं असावधान मन से परशुरामजी के बाणों को काट रहा था! इतने ही में परशुरामजी ने मुझ पर मृत्यु के समान भयंकर बाण छोड़ा। (6)
  • उस समय मैं सारथि की मृत्यु के कारण व्याकुल था तो भी भृगुनन्दन परशुराम ने अपने सुदृढ़ धनुष को जोर-जोर से खींचकर मुझ पर बाण से गहरा आघात किया। (7)
  • राजेन्द्र! वह रक्त पीने वाला बाण मेरी दोनों भुजाओं के बीच वक्ष:स्थल में चोट पहुँचाकर मुझे साथ लिये-दिये पृथ्‍वी पर जा गिरा। (8)
  • भरतश्रेष्‍ठ! उस समय मुझे मारा गया जानकर परशुरामजी मेघ के समान गम्भीर स्वर से गर्जना करने लगे। उनके शरीर में बार-बार हर्ष जनित रोमाञ्च होने लगा। (9)
  • राजन! इस प्रकार मेरे धराशायी होने पर परशुरामजी को बड़ी प्रसन्नता हई। उन्होंने अपने अनुयायियों के साथ महान कोलाहल मचाया। (10)
  • वहाँ मेरे पार्श्‍वभाग में जो कुरुवंशी क्षत्रियगण खडे़ थे तथा जो लोग वहाँ युद्ध देखने की इच्छा से आये थे, उन सबको मेरे गिर जाने पर बड़ा दु:ख हुआ। (11)
  • राजसिंह! वहाँ गिरते समय मैंने देखा कि सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी आठ ब्राह्मण आये और संग्रामभूमि में मुझे सब ओर से घेरकर अपनी भुजाओं पर ही मेरे शरीर को धारण करके खडे़ हो गये। (12)
  • उन ब्राह्मणों से सुरक्षित होने के कारण मुझे धरती का स्पर्श नहीं करना पड़ा। मेरे सगे भाई-बन्धुओं की भाँति उन ब्राह्मणों ने मुझे आकाश में ही रोक लिया था। (13)
  • राजन! आकाश में मैं सांस लेता-सा ठ‍हर गया था। उस समय ब्राह्मणों ने मुझ पर जल की बूंदे छिड़क दीं। फिर वे मुझे पकड़कर बोले। (14)
  • उन सबने एक साथ ही बार-बार कहा- ‘तुम्हाराकल्याण हो। तुम भयभीत न हो।’ उनके वचनामृतों से तृप्त होकर मैं सहसा उठकर खड़ा हो गया और देखा, मेरे रथ पर सारथि के स्थान में सरिताओं में श्रेष्‍ठ माता गंगा बैठी हुई हैं। (15)
  • कौरवराज! उस युद्ध में महानदी माता गंगा ने मेरे घोड़ों की बागडोर पकड़ रखी थी। तब मैं माता के चरणों का स्पर्श करके और पितरों के उद्देश्‍य से भी मस्तक नवाकर उस रथ पर जा बैठा। (16)
  • माता ने मेरे रथ, घोड़ों तथा अन्यान्य उपकरणों की रक्षा की। तब मैंने हाथ जोड़कर पुन: माता को विदा कर दिया। (17)
  • भारत! तदनन्तर स्वयं ही उन वायु के समान वेगशाली घोड़ों को काबू में करके मैं जमदग्निनन्दन परशुरामजी के साथ युद्ध करने लगा। उस समय दिन प्राय: समाप्त हो चला था। (18)
  • भरतश्रेष्‍ठ! उस समरभूमि में मैंने परशुरामजी की ओर एक प्रबल एवं वेगवान बाण चलाया, जो हृदय को विदीर्ण कर देने वाला था। (19)
  • मेरे उस बाण से अत्यन्त पीड़ित हो परशुरामजी ने मूर्छा के वशीभूत होकर धनुष छोड़ धरती पर घुटने टेक दिये। (20)
  • अनेक सहस्र ब्राह्मणों को बहुत दान करने वाले परशुरामजी के धराशायी होने पर अधिकाधिक रक्त की वर्षा करते हुए बादलों ने आकाश को ढक लिया। (21)
  • बिजली की गड़गडाहट के समान सैकड़ों उल्कापात होने लगे। भूकम्प आ गया। अपनी किरणों से उद्भासित होने वाले सूर्यदेव को राहु ने सब ओर से सहसा घेर लिया। (22)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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