महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 53 श्लोक 1-20

त्रिपंचाशत्तम (53) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


भगवान श्रीकृष्ण की प्रातश्चर्या, सात्यकि द्वारा उनका संदेश पाकर भाइयों सहित युधिष्ठिर का उन्हीं के साथ कुरुक्षेत्र में पधारना


वैशम्पायनजी कहते है- जनमेजय! तदनन्तर मधुसूदन भगवान श्रीकृष्ण एक सुन्दर शय्या का आश्रय लेकर सो गये। जब आधा पहर रात बीतने को बाकी रह गयी, तब वे जागकर उठ बैठे। तत्पश्चात् ध्यानमार्ग में स्थित हो माधव सम्पूर्ण ज्ञानों को प्रत्यक्ष करके अपने सनातन ब्रह्मस्वरूप का चिन्तन करने लगे। इसी समय स्तुति और पुराणों के ज्ञाता, मधुरकण्ठ वाले सुशिक्षित सूत मागध और वन्दीजन विश्वनिर्माता, प्रजापालक उन भगवान वासुदेव की स्तुति करने लगे। हाथ से वीणा आदि बजाने वाले पुरुष स्तुतिपाठ करने लगे, गायक गीत गाने लगे और सहस्रों मनुष्य शंख एवं मृदंग बजाने लगे। वीणा, पणव तथा मुरली का अत्यन्त मनोरम स्वर इस तरह सुनायी देने लगा, मानो उस महल का अट्टहास सब और फैल रहा हो। तत्पश्चात राजा युधिष्ठिर के भवन से भी मधुर, मंगलमयी वाणी तथा गीत वाद्य की ध्वनि प्रकट होने लगी।
तत्पचात् अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण ने शय्या से उठकर स्नान किया, फिर गूढ़ गायत्री-मन्त्र का जप करके हाथ जोडे हुए अग्नि के समीप जा बैठे। वहाँ अग्निहोत्र करने के अनन्तर भगवान माधव ने चारों वेदों के विद्वान एक हजार ब्राह्मणों को बुलाकर प्रत्येक को एक-एक हजार गौएँ दान की और उनसे वेदमन्त्रों का पाठ एवं स्वस्तिवाचन कराया। इसके बाद मांगलिक वस्तुओं का स्पर्श करके भगवान ने स्वच्छ दर्पण में अपने स्वरूप् का दर्शन किया और सात्यकि से कहा-। शिनिनन्दन! जाओ, राजमहल में जाकर पता लगाओं कि महातेजस्वी राजा युधिष्ठिर भीष्मजी के दर्शनार्थ चलने के लिये तैयार हो गये क्या?। श्रीकृष्ण की आज्ञा पाकर सात्यकि तुरंत वहाँ से चल दिये और राजा युधिष्ठिर के पास जाकर बोले-। राजन्! परम बुद्धिमान भगवान वासुदेव का श्रेष्ठ रथ जुतकर तैयार हो गया है। श्रीजनार्दन शीघ्र ही गंगानन्दन भीष्म के समीप जाने वाले है। महातेजस्वी धर्मराज! भगवान श्रीकृष्ण आपकी ही प्रतीक्षा कर रहे है। अब आप जो उचित समझें, वह कार्य कर सकते है। सात्यकि के इस प्रकार कहने पर धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने अर्जुन को यह आदेश दिया। युधिष्ठिर बोले- अनुपम तेजस्वी अर्जुन! मेरा श्रेष्ठ रथ जोतकर तैयार कराओ। आज सैनिकों को हमारे साथ नहीं जाना चाहिये। केवल हम लोगों को ही चलना है। धनंजय! धर्मात्माओं में श्रेष्ठ भीष्मजी को अधिक भीड बढाकर कष्ट देना उचित नहीं है। अतः आगे चलने वाले सैनिकों को भी जाने के लिये मना कर देना चाहिये। कुन्तीनन्दन! आज से गंगाकुमार भीष्म जी धर्म के अत्यन्त गूढ रहस्य का उपदेश करेंगे। अतः मैं भिन्न भिन्न रुचि रखने वाले साधारण जनसमाज को वहाँ नहीं जुटाना चाहता।
वैशम्पायनजी कहते है- जनमेजय! युधिष्ठिर की आज्ञा शिरोधार्य करके कुन्तीकुमार नरश्रेष्ठ अर्जुन ने वैसा ही किया। फिर आकर उन्हें सूचना दी कि महाराज का श्रेष्ठ रथ तैयार है। तदनन्तर राजा युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव सब एक रथ पर आरूढ हो श्रीकृष्ण के निवास स्थान पर गये, मानो समस्त महाभूत मूर्तिमान होकर पधारे हों।
महात्मा पाण्डवों के पदार्पण करने पर सात्यकि सहित बुद्धिमान भगवान श्रीकृष्ण भी एक ही रथ पर आरूढ़ हो गये। रथ पर बैठे-बैठे ही उन सबने बातचीत की, और एक-दूसरे से रात्रि के सुखपूर्वक व्यतीत होने का कुशल समाचार पूछा। फिर वे नरश्रेष्ठ मेघगर्जना के समान गम्भीर घोष करने वाले श्रेष्ठ रथों द्वारा वहाँ से चल पड़े।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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