महाभारत सभा पर्व अध्याय 51 भाग 1

एकपंचाशत्तम (51) अध्‍याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: एकपंचाशत्तम अध्याय: भाग 1 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर को भेंट में मिली हुई वस्तुओं का दुर्योधन द्वारा वर्णन

दुर्योधन बोला- भारत! मैंने पाण्डवों के यज्ञ में राजाओं के द्वारा भिन्न-भिन्न देशों से लाये हुए जो उत्तम धनरत्न देखे थे, उन्हें बताता हूँ, सुनिये। भरत कुलभूषण! आप सच मानिये, शत्रुओं का वह वैभव देखकर मेरा मन मूढ़ सा हो गया था। मैं इस बात को न जान सका कि यह धन कितना है और किस देश से लाया गया है। काम्बोज नरेश ने भेड़ के ऊन, बिल में रहने वाले चूहे आदि के रोएँ तथा बिल्लियों की रोमावलियों से तैयार किये हुए सुवर्ण चित्रित बहुत से सुन्दर वस्त्र और मृगचर्म भेंट में दिये थे। तीतर पक्षी की भाँति चितकबरे और तोते के समान नाक वाले तीन सौ घोड़े दिये थे। इसके सिवा तीन तीन सौ ऊँटनियाँ और खच्चरियाँ भी दी थीं, जो पीलु, शमी और इंगुद खाकर मोटी ताजी हुई थीं। महाराज! ब्राह्मण लोग तथा गाय-बैलों का पोषण करने वाले वैश्य और दास कर्म के योग्य शूद्र आदि सभी महात्मा धर्मराज की प्रसन्नता के लिये तीन स्वर्ग के लागत की भेंट लेकर दरवाजे पर रोके हुए खड़े थे। ब्राह्मण लोग तथा हरी भरी खेती उपजाकर जीवन निर्वाह करने वाले और बहुत से गाय बैल रखने वाले वैश्य सैकड़ों दलों में इकठ्ठे होकर सोने के बने हुए सुन्दर कलश एवं अन्य भेंट सामग्री लेकर द्वार पर खड़े थे। परंतु भीतर प्रवेश नहीं कर पाते थे। द्विजों में प्रधान राजा कुणिन्द ने परम बुद्धिमान धर्मराज युधिष्ठिर को बड़े प्रेम से एक शंख निवेदन किया। उस शंख को सब भाइयों ने मिलकर किरीटधारी अर्जुन को दे दिया। उसमें सोने का हार जड़ा हुआ था और एक हजार स्वर्ण मुद्राएँ मढ़ी गयी थीं। अर्जुन ने उसे सादर ग्रहण किया। वह शंख अपने तेज से प्रकाशित हो रहा था।

साक्षात विश्वकर्मा ने उसे रत्नों द्वारा विभूषित किया था। वह बहुत ही सुन्दर और दर्शनीय था। साक्षात धर्म ने उस शंख को बार-बार नमस्कार करके धारण किया था। अन्नदान करने पर वह शंख अपने आप बज उठता था। उस समय उस शंख ने बड़े जोर से अपनी ध्वनि का विस्तार किया। उसके गम्भीर नाद से समस्त भूमिपाल तेजोहीन होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। केवल धृष्टद्युम्न, पाँच पाण्डव, सात्यकि तथा आठवें श्रीकृष्ण धैर्यपूर्वक खड़े रहे। ये सब के सब एक दूसरे का प्रिय करने वाले तथा शौर्य से सम्पन्न हैं। इन्होंने मुझ को तथा दूसरे भूमिपालों को मूर्च्छित हुआ देख जोर जोर से हँसना आरम्भ किया। उस समय अर्जुन ने अत्यन्त प्रसन्न होकर एक श्रेष्ठ ब्राह्मण को पाँच सौ हष्ट पुष्ट बैल दिये। वे बैल गाड़ी का बोझ ढोने में समर्थ थे और उनके सींगों में सोना मढ़ा गया था। भारत! राजा सुमुख ने अजात शत्रु युधिष्ठिर के पास भेंट की प्रमुख वस्तुएँ भेजी थीं। कुणिन्द ने भाँति-भाँति के वस्त्र और सुवर्ण दिये थे। काश्मीर नरेश ने मीठे तथा रसीले शुद्ध अंगूरों के गुच्छे भेंंट किये थे। साथ ही सब प्रकार की उपहार सामग्री लेकर उन्होंने पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर की सेवा में उपस्थित की थी। कितने ही यवन मन के समान वेगशाली पर्वतीय घोड़े, बहुमूल्य, आसन, नूतन, सूक्ष्म, विचित्र दर्शनीय और कीमती कम्बल, भाँति-भाँति के रत्न तथा अन्य वस्तुएँ लेकर राज द्वार पर खड़े थे, फिर भी अंदर नहीं जाने पाते थे। कलिंग नरेश श्रुतायु ने उत्तम मणिरत्न भेंट किये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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