महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 38 श्लोक 1-21

अष्टात्रिंश (38) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (नारदागमन पर्व)

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महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद


नारद जी के सम्मुख युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र आदि के लौकिक अग्नि में दग्ध हो जाने का वर्णन करते हुए विलाप और अन्य पांडवों का भी रोदन


युधिष्ठिर बोले- "भगवान! हम जैसे बन्धु-बान्धवों के रहते हुए भी कठोर तपस्या में लगे हुए महामना धृतराष्ट्र की अनाथ के समान मृत्यु हुई, यह कितने दुःख की बात है? ब्रह्मन! मेरा तो ऐसा मत है कि मनुष्यों की गति का ठीक-ठीक ज्ञान होना अत्यन्त कठिन है; जबकि विचित्रवीर्यकुमार धृतराष्ट्र को इस तरह दावानल से दग्ध होकर मरना पड़ा। जिन बाहुबलशाली नरेश के सौ पुत्र थे, जो स्वयं भी दस हज़ार हाथियों के समान बलवान थे, वे ही दावानल से जलकर मरे हैं, यह कितने दुःख की बात है? पूर्वकाल में सुन्दरी स्त्रियाँ जिन्हें सब ओर से ताड़ के पंखों द्वारा हवा करती थीं, उन्हें दावानल से दग्ध हो जाने पर गीधों ने अपनी पाँखों से हवा की है। जो बहुमूल्य शैय्या पर सोते थे और जिन्हें सूत तथा मागधों के समुदाय मधुर गीतों द्वारा जगाया करते थे, वे ही महाराज मुझ पापी की करतूतों से पृथ्वी पर सो रहे हैं। मुझे पुत्रहीना यशस्विनी गांधारी के लिये उतना शोक नहीं है, क्योंकि वे पातिव्रत्य-धर्म का पालन करती थीं; अतः पतिलोक में गयी हैं। मैं तो उन माता कुन्ती के लिये ही अधिक शोक करता हूँ, जिन्होंने पुत्रों के समृद्धिशाली एवं परम समुज्ज्वल ऐश्वर्य को ठुकराकर वन में रहना पसंद किया था।

हमारे इस राज्य को धिक्कार है, बल और पराक्रम को धिक्कार है तथा इस क्षत्रिय-धर्म को भी धिक्कार है, जिससे आज हम लोग मृतकतुल्य जीवन बिता रहे हैं। विप्रवर! काल की गति अत्यन्त सूक्ष्म है, जिससे प्रेरित होकर माता कुन्ती ने राज्य त्यागकर वन में ही रहना ठीक समझा। युधिष्ठिर, भीमसेन और अर्जुन की माता अनाथ की भाँति कैसे जल गयी, यह सोचकर मैं मोहित हो जाता हूँ। सव्यसांची अर्जुन ने जो खाण्डव वन में अग्नि देव को तृप्त किया था, वह व्यर्थ हो गया। वे उस उपकार को याद न रखने के कारण कृतघ्न हैं, ऐसी मेरी धारणा है। जो एक दिन ब्राह्मण का वेश बनाकर अर्जुन से भीख माँगने आये थे, उन्‍हीं भगवान अग्निदेव ने अर्जुन की माँ को जलाकर भस्म कर दिया। अग्नि देव को धिक्कार है। अर्जुन की जो सुप्रसिद्ध सत्यप्रतिज्ञता है, उसको भी धिक्कार है।

भगवान! राजा धृतराष्ट्र के शरीर को जो व्यर्थ (लौकिक) अग्नि का संयोग प्राप्त हुआ, यह दूसरी अत्यन्त कष्ट देने वाली बात जान पड़ती है। जिन्होंने पहले इस पृथ्वी का शासन करके अन्त में वैसी कठोर तपस्या का आश्रय लिया था, उन कुरुवंशी राजर्षि को ऐसी मृत्यु क्यों प्राप्त हुई? हाय, उस महान वन में मन्त्रों से पवित्र हुई अग्नियों के रहते हुए भी मेरे ताऊ लौकिक अग्नि से दग्ध होकर मृत्यु को प्राप्त हुए? मैं तो समझता हूँ कि अत्यन्त दुर्बल हो जाने के कारण जिनके शरीर में फैली हुई नस-नाड़ियाँ तक स्पष्ट दिखायी देती थीं, वे मेरी माता कुन्ती अग्नि का महान भय उपस्थित होने पर ‘हा तात! हा धर्मराज!’ कहकर कातर पुकार मचाने लगी होंगी। "भीमसेन! इस भय से मुझे बचाओ", ऐसा कहकर चारों ओर चीखती-चिल्लाती हुई मेरी माता को दावानल ने जलाकर भस्म कर दिया होगा। सहदेव मेरी माता को अपने सभी पुत्रों से अधिक प्रिय था; परंतु वह वीर माद्रीकुमार भी माँ को उस संकट से बचा न सका।"

यह सुनकर समस्त पांडव एक-दूसरे को हृदय से लगाकर रोने लगे। जैसे प्रलय काल में पाँचों भूत पीड़ित हो जाते हैं, उसी प्रकार उस समय पाँचों पांडव दुःख से आतुर हो उठे। वहाँ रोदन करते हुए उन पुरुषप्रवर पांडवों के रोने का शब्द महल के विस्तार से अवरुद्ध हुए भूतल और आकाश में गूँजने लगा।  

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिक पर्व के अन्तर्गत नारदागमन पर्व में युधिष्ठिर का विलाप विषयक अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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