महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 175 श्लोक 1-12

पंचसप्‍तत्‍यधिकशततम (175) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: पंचसप्‍तत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

अपने कल्‍याण की इच्‍छा रखने वाले पुरुष का क्‍या कर्तव्‍य है, इस विषय में पिता के प्रति पुत्र द्वारा ज्ञान का उपदेश

राजा युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! समस्त भूतों का संहार करने वाला यह काल बराबर बीता जा रहा है, ऐसी अवस्था में मनुष्‍य क्‍या करने से कल्‍याण का भागी हो सकता है? यह मुझे बताइये।

भीष्‍मजी ने कहा- युधिष्ठिर! इस विषय में ज्ञानी पुरुष पिता और पुत्र के संवादरूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। तुम उस संवाद को ध्‍यान देकर सुनो। कुन्‍तीकुमार, प्राचीनकाल में एक ब्राह्मण थे, जो सदा वेद–शास्त्रों के स्वाध्‍याय में तत्पर रहते थे। उनके एक पुत्र हुआ, जो गुण से तो मेधावी था ही नाम से भी मेधावी था। वह मोक्ष, धर्म और अर्थ में कुशल तथा लोकतत्त्व का अच्छा ज्ञाता था। ए‍क दिन उस पुत्र ने अपने स्वाध्‍याय परायण पिता से कहा।

पुत्र बोला- पिताजी! मनुष्‍यों की आयु तीव्र गति से बीती जा रही है। यह जानते हुए धीर पुरुष को क्या करना चाहिये? तात, आप मुझे उस यथार्थ उपाय का उपदेश कीजिये, जिसके अनुसार मैं धर्म का आचरण कर सकूँ।

पिता ने कहा- बेटा! दिव्ज को चाहिये कि वह पहले ब्रह्मचर्य–व्रत का पालन करते हुए सम्पूर्ण वेदों का अध्‍ययन करें, फिर गृहस्था श्रम में प्रवेश करके पितरों की सद्गति के लिये पुत्र पैदा करने की इच्छा करे। विधि पूर्वक त्रिविध अग्नियों की स्थापना करके यज्ञों का अनुष्‍ठान करे। तत्पश्‍चात वानप्रस्थ–आश्रम में प्रवेश करें। उसके बाद मौनभाव से रहते हुए संन्यासी होने की इच्छा करे।

पुत्र ने कहा- पिता जी! यह लोक जब इस प्रकार से मृत्यु द्वारा मारा जा रहा है, जरा–अवस्था द्वारा चारों ओर से घेर लिया गया है, दिन और रात सफलतापूर्वक आयुक्षयरूप काम करके बीत रहे हैं- ऐसी दशा में भी आप धीर की भाँति कैसी बात कर रहे हैं।

पिता ने पू्छा- बेटा! तुम मुझे भयभीत–सा क्यों कर रहें हो। बताओ तो सही, यह लोक किससे मारा जा रहा है, किसने इसे घेर रखा है और यहाँ कौन–से ऐसे व्यक्ति हैं जो सफलता पूर्वक अपना काम करके व्यतीत हो रहे हैं।

पुत्र ने कहा- पिता जी! देखिये, यह सम्पूर्ण जगत मृत्यु के द्वारा मारा जा रहा है। बुढापे ने इसे चारों ओर से घेर लिया है और ये दिन- रात ही वे व्यक्ति हैं जो सफलता पूर्वक प्राणियों की आयु अपहरण स्वरूप अपना काम करके व्यतीत हो रहे हैं, इस बात को आप समझते क्यों नहीं हैं? ये अमोघ रात्रियों नित्य आती हैं ओर चली जाती हैं। जब मैं इस बात को जानता हूँ कि मृत्यु क्षणभर के लिये भी रुक नहीं सकती और मैं उसके जाल में फंसकर ही विचार रहा हूं, तब मैं थोड़ी देर भी प्रतीक्षा कैसे कर सकता हूं? जब–जब एक–एक रात बीतने के साथ ही आयु बहुत कम होती चली जा रही है, तब छिछले जल में रहने वाली मछली के समान कौन सुख पा सकता है? जिस रात के बीतने पर मनुष्‍य कोई शुभ कर्म न करे, उस दिन को विद्वान पुरुष ‘व्य‍र्थ ही गया’ समझे। मनुष्‍य की कामनाएँ पूरी भी नहीं होने पाती कि मौत उसके पास आ पहुँचती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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