महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 43 श्लोक 1-17

त्रिचत्वारिंश (43) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-17का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! राज्याभिषेक के पश्चात् राज्य पाकर परम बुद्धिमान् युधिष्ठिर ने पवित्रभाव से हाथ जोड़कर कमलनयन दशार्हवंशी श्रीकृष्ण से कहा- ‘यदुसिंह श्रीकृष्ण! आपकी ही कृपा, नीति, बल, बुद्धि और पराक्रम से मुझे पुनः अपने बाप-दादों का यह राज्य प्राप्त हुआ है। शत्रुओं का दमन करने वाले कमलनयन! आपको बारंबार नमस्कार है। अपने मन और इन्द्रियों को संयम में रखने वाले द्विज एकमात्र आपको ही अन्तर्यामी पुरुष एवं उपासना करने वाले भक्तों का प्रतिपालक बताते हैं। साथ ही वे नाना प्रकार के नामों द्वारा आपकी स्तुति करते हैं। यह सम्पूर्ण विश्व आपकी लीलामयी सृष्टि है। आप इस विश्व के आत्मा हैं। आप ही से इस जगत् की उत्पत्ति हुई है। आप ही व्यापक होने के कारण ‘विष्णु’ विजयी होने से ‘जिष्णु’, दुःख और पाप हर लेने से ‘हरि’, अपनी ओर आकृष्ट करने के कारण ‘कृष्ण’, विकुण्ठ धाम के अधिपति होने से 'बैकुण्ठ' तथा क्षर-अक्षर पुरुष से उत्तम होने के कारण ‘पुरुषोत्तम’ कहलाते हैं। आपको नमस्कार है। आप पुराण पुरुष परमात्मा ने ही सात प्रकार से अदिति के गर्भ में अवतार लिया है। आप की पृश्निगर्भ के नाम से प्रसिद्ध हैं। विद्वान् लोग तीनों युगों में प्रकट होने के कारण आपको ‘त्रियुग’ कहते हैं। आपकी कीर्ति परम पवित्र है। आप सम्पूर्ण इन्द्रियों के प्रेरक हैं। घृत ही जिसकी ज्वाला है- वह यज्ञपुरुष आप ही हैं। आप ही हंस (विशुद्ध परमात्मा) कहे जाते हैं।

त्रिनेत्रधारी भगवान् शंकर और आप एक ही हैं। आप सर्वव्यापी होने के साथ ही दामोदर (यशोदा मैया के द्वारा बँध जाने वाले नटवर नागर) भी हैं। वराह, अग्नि, बृहद्भानु (सूर्य), वृषभ (धर्म), गरुड़ध्वज, अनीकसाह (शत्रुसेना का वेग सह सकने वाले), पुरुष (अन्तर्यामी), शिपिविष्ट (सबके शरीर में आत्मारूप से प्रविष्ट) और उरुक्रम (वामन)- ये सभी आपके ही नाम और रूप हैं। सबसे श्रेष्ठ, भयंकर सेनापति, सत्यस्वरूप, अन्नदाता तथा स्वामी कार्तिकेय भी आप ही हैं। आप स्वयं कभी युद्ध से विचलित न होकर शत्रुओं को पीछे हटा देते हैं। संस्कार-सम्पन्न द्विज और संस्कारशून्य वर्णसंकर भी आपके ही स्वरूप हैं। आप कामनाओं की वर्षा करने वाले वृष (धर्म) हैं। कृष्णधर्म (यज्ञस्वरूप) और सबके आदिकारण आप ही हैं। वृषदर्भ (इन्द्र के दर्प का दलन करने वाले) और वृषाकपि (हरिहर) भी आप ही हैं। आप ही सिंन्धु (समुद्र), विधर्म (निर्गुण परमात्मा), त्रिककुप् (ऊपर-नीचे और मध्य - ये तीन दिशाएँ), त्रिधामा (सूर्य, चन्द्र और अग्नि ये त्रिविध तेज) तथा वैकुण्ठधाम से नीचे अवतीर्ण होने वाले भी हैं। आप सम्राट, विराट्, स्वराट् और देवराज इन्द्र हैं। यह संसार आप ही से प्रकट हुआ है। आप सर्वत्र व्यापक, नित्य सत्तारूप और निराकार परमात्मा हैं। आप ही कृष्ण (सबको अपनी ओर खींचने वाले) और कृष्णवर्त्मा (अग्नि) हैं।

आप ही को लोग अभीष्ट साधक, अश्विनी कुमारों के पिता सूर्य, कपिल मुनि, वामन, यज्ञ, ध्रुव, गरुड़ तथा यज्ञसेन कहते हैं। आप अपने मस्तक पर मोर का पंख धारण करते हैं। आपकी पूर्वकाल में राजा नहुष होकर प्रकट हुए थे। आप सम्पूर्ण आकाश को व्याप्त करने वाले महेश्वर तथा एक ही पैर में आकाश को नाप लेने वाले विराट हैं। आप ही पुनर्वसु नक्षत्र के रूप में प्रकाशित हो रहे हैं। सुबभ्रु (अत्यन्त पिंगल वर्ण), रुक्मयज्ञ (सुवर्ण की दक्षिणा से भरपूर यज्ञ), सुषेण (सुन्दर सेना से सम्पन्न) तथा दुन्दुभिस्वरूप हैं। आप की गभस्तिनेमि (कालचक्र), श्रीपद्म, पुष्कर, पुष्पधारी, ऋभु, विभु, सर्वथा सूक्ष्म और सदाचार स्वरूप कहलाते हैं। आप ही जलनिधि समुद्र, आप ही ब्रह्मा तथा आप ही पवित्र धाम एवं धाम के ज्ञाता हैं। केशव! विन् पुरुष आपको ही हिरण्यगर्भ, स्वधा और स्वाहा आदि नामों से पुकारते हैं। श्रीकृष्ण! आप ही इस जगत् के आदि कारण हैं और आप इसके प्रलयस्थान हैं। कल्प के आरम्भ में आप ही इस विश्व की सृष्टि करते हैं। विश्व के कारण! यह सम्पूर्ण विश्व आपके ही अधीन है। हाथों में धनुष, चक्र और खड्ग धारण करने वाले परमात्मन्! आपको नमस्कार है’। इस प्रकार जब धर्मराज युधिष्ठिर ने सभा में यदुकुल-शिरोमणि कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति की, तब उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर भरतभूषण ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर का उत्तम वचनों द्वारा अभिनन्दन किया। जो धर्मराज युधिष्ठिर द्वारा वर्णित भगवान श्रीकृष्ण के इन सो नामों का पाठ या श्रवण करता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुतिविषयक तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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