महाभारत शल्य पर्व अध्याय 44 श्लोक 1-19

चतुश्चत्वारिंश (44) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

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महाभारत: शल्य पर्व: चतुश्चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


कुमार कार्तिकेय का प्राकट्य और उनके अभिषेक की तैयारी


जनमेजय ने कहा- द्विजश्रेष्ठ! आपने सरस्वती का यह प्रभाव बताया है। ब्रह्मन! अब कुमार कार्तिकेय के अभिषेक का वर्णन कीजिये। वक्ताओं में श्रेष्ठ! किस देश और काल में किन लोगों ने किस विधि से किस प्रकार शक्तिशाली भगवान स्कन्द का अभिषेक किया? स्कन्द ने जिस प्रकार दैत्यों का महान संहार किया हो, वह सब उसी तरह मुझे बताइये; क्योंकि मेरे मन में इसे सुनने के लिये बड़ा कौतूहल हो रहा है।

वैशम्पायन जी बोले- जनमेजय! तुम्हारा यह कौतूहल कुरुवंश के योग्य ही है। तुम्हारा वचन मेरे मन में बड़ा भारी हर्ष उत्पन्न कर रहा है। नरेश्वर! तुम ध्यान देकर सुन रहे हो, इसलिये मैं तुमसे प्रसन्नतापूर्वक महात्मा कुमार कार्तिकेय के अभिषेक और प्रभाव का वर्णन करता हूँ। पूर्वकाल की बात है, भगवान शिव का तेजोमय वीर्य अग्नि में गिर पड़ा। भगवान अग्नि सर्वभक्षी हैं तो भी उस अक्षय वीर्य को वे भस्म न कर सके। उस वीर्य के कारण अग्निदेव दीप्तिमान, तेजस्वी तथा शक्ति सम्पन्न होकर भी कष्ट का अनुभव करने लगे। वे उस समय उस तेजोमय गर्भ को जब धारण न कर सके, तब ब्रह्मा जी की आज्ञा से उन भगवान अग्निदेव ने सूर्य के समान तेजस्वी उस दिव्य गर्भ को गंगा जी में डाल दिया। तदनन्तर गंगा ने भी उस गर्भ को धारण करने में असमर्थ होकर उसे देवपूजित सुरभ्य हिमालय पर्वत के शिखर पर सरकण्डों में छोड़ दिया। अग्नि का वह पुत्र अपने तेज से सम्पूर्ण लोकों को व्याप्त करके वहाँ बढ़ने लगा।

सरकण्डों के समूह में अग्नि के समान प्रकाशित होते हुए उस सर्वसमर्थ महात्मा अग्नि पुत्र को, जो नवजात शिशु के रूप में उपस्थित था, छहों कृत्तिकाओं ने देखा। उसे देखते ही पुत्र की अभिलाषा रखने वाली वे सभी कृत्तिकाएं पुकार-पुकार कर कहने लगी ‘यह मेरा पुत्र है’। उन माताओं के उस वात्सल्य भाव को जानकर प्रभावशाली भगवान स्कन्द छः मुख प्रकट करके उनके स्तनों से झरते हुए दूध को पीने लगे। वे दिव्यरूप धारिणी छहों कृत्तिका देवियां उस बालक का वह प्रभाव देखकर अत्यन्त आश्चर्य से चकित हो उठीं। कुरुश्रेष्ठ! गंगा जी ने पर्वत के जिस शिखर पर स्कन्द को छोड़ा था, वह सारा का सारा सुवर्णमय हो गया। उस बढ़ते हुए शिशु ने वहाँ की भूमि को रंजित (प्रकाशित) कर दिया था। इसलिये वहाँ के सभी पर्वत सोने की खान बन गये। वह महान शक्तिशाली कुमार कार्तिकेय के नाम से विख्यात हुआ। वह महान योग बल से सम्पन्न बालक पहले गंगा जी का पुत्र था। राजेन्द्र! शम, तपस्या और पराक्रम से युक्त वह कुमार अत्यन्त वेग से बढ़ने लगा। वह देखने में चन्द्रमा के समान प्रिय लगता था। उस दिव्य सुवर्णमय प्रदेश में सरकण्डों के समूह पर स्थित हुआ वह कान्तिमान बालक निरन्तर गन्धर्वों एवं मुनियों के मुख से अपनी स्तुति सुनता हुआ सो रहा था। तदनन्तर दिव्य वाद्य और नृत्य की कला जानने वाली सहस्रों सुन्दरी देवकन्याएं उस कुमार की स्तुति करती हुई उसके समीप नृत्य करने लगीं।

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