महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 67 श्लोक 1-17

सप्तषष्टितम (67) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


राष्ट्र की रक्षा और उन्नति के लिये राजा की आवश्यकता का प्रतिपादन

राजा युधिष्ठिर ने कहा- पितामह! आपने चारों आश्रमों और चारों वर्णों के धर्म बतलाये। अब आप मुझे यह बताइये कि समूचे राष्ट्र का-उस राष्ट्र में निवास करने वाले प्रत्येक नागरिकका मुख्य कार्य क्या है ? भीष्मजी बोले- युधिष्ठिर! राष्ट्र अथवा राष्ट्रवासी प्रजावर्ग का सबसे प्रधान कार्य यह है कि वह किसी योग्य राजा का अभिषेक करे, क्योंकि बिना राजाका राष्ट्र निर्बल होता है। उसे डाकू और लुटेरे लूटते तथा सताते हैं। जिन देशोंमें कोई राजा नहीं होता, वहाँ धर्म की भी स्थिति नहीं रहती है; अतः वहाँ के लोग एक-दूसरे को हड़पने लगते हैं; इसलिये जहाँ अराजकता हो, उस देशको सर्वथा धिक्कार है! श्रुति कहती है, ‘प्रजा जो राजा का वरण करती है, वह मानो इन्द्र का ही वरण करती है,‘ अतः लोक का कल्याण चाहने वाले पुरुष को इन्द्र के समान ही राजा का पूजन करना चाहिये। मेरी रुचि तो यह है कि जहाँ कोई राजा न हो, उन देशों में निवास ही नहीं करना चाहिये।
बिना राजा के राज्य में दिये हुए हविष्य को अग्निदेव वहन नहीं करते। यदि कोई प्रबल राजा राज्य के लोभ से उन बिना राजा के दुर्बल देशों पर आक्रमण करे तो वहाँ के निवासियों को चाहिये कि वे आगे बढ़कर उसका स्वागत-सत्कार करें। यही वहाँ के लिये सबसे अच्छी सलाह हो सकती है; क्योंकि पापूर्ण अराजकता से बढ़कर दूसरा कोई पाप नहीं है। वह बलवान् आक्रमणकारी नरेश यदि शान्त दृष्टि से देखे तो राज्य की पूर्णतः भलाई होती है और यदि वह कुपति हो गया तो उस राज्य का सर्वराश कर सकता है। राजन्! जो गाय कठिनाई से दुही जाती है, उसे बडे़-बड़े क्लेश उठाने पड़ते हैं, परंतु जो सुगमता पूर्वक दूध दुह लेने देती है, उसे लोग पीड़ा नहीं देते हैं, आराम से रखते हैं। जो राष्ट्र बिना कष्ट पाये ही नतमस्तक हो जाता है, वह अधिक संताप का भागी नहीं होता। जो लकड़ी स्वयं ही झुक जाती है, उसे लोग झुकाने का प्रयत्न नहीं करते हैं। वीर! इस उपमा को ध्यान में रखते हुए दुर्बल को बलवान के सामने नतमस्तक हो जाना चाहिये। जो बलवान को प्रणाम करता है, वह मानो इन्द्र को ही नमस्कार करता है। अतः सदा उन्नति की इच्छा रखने वाले देश को अपनी रक्षा के लिये किसी को राजा अवश्य बना लेना चाहिये।
जिनके देश में अराजकता है, उनके धन और स्त्रियों पर उन्हीं का अधिकार बना रहे, यह सम्भव नहीं है। अराजकता की स्थिति में दूसरों के धन का अपहरण करने वाला पापाचारी मनुष्य बड़ा प्रसन्न होता है, परंतु जब दूसरे लुटेरे उसका भी सारा धन हड़प लेते हैं, तब वह राजा की आवश्यकता का अनुभव करता है। अराजक देश में पापी मनुष्य भी कभी कुशलपूर्वक नहीं रह सकते। एक का धन दो मिलकर उठा ले जाते हैं और उन दोनो का धन दूसरे बहुसंख्यक लुटेरे लूट लेते हैं। अराजकता की स्थिति में जो दास नहीं है, उसे दास बना लिया जाता है और स्त्रियों का बलपूर्वक अपहरण किया जाता है। इसी कारण से देवताओं ने प्रजापालक नरेशों की सृष्टि की है। यदि इस जगत में भूतल पर दण्डधारी राजा न हो तो जैसे जल में बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियोंको खा जाती हैं, उसी प्रकार प्रबल मनुष्य दुर्बलों को लूट खायँ। हमने सुन रखा है कि जैसे पानी में बलवान् मत्स्य दुर्बल मत्स्यों को अपना आहार बना लेते हैं, उसी प्रकार पूर्वकाल में राजा के न रहने पर प्रजावर्ग के लोग परस्पर एक-दूसरे को लूटते हुए नष्ट हो गये थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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