सप्तषष्टितम (67) अध्याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)
महाभारत: सभा पर्व: सप्तषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन गर्व से उन्मत्त हो रहा था। उसने 'विदुर को धिक्कार है' ऐसा कहकर प्रातिकामी की ओर देखा सभा में बैठे हुए श्रेष्ठ पुरुषों के बीच उससे कहा। दुर्योधन बोला- प्रातिकार्मिन्! तुम द्रौपदी को यहाँ ले आओ। तुम्हें पाण्डवों से कोई भय नहीं है। ये विदुर तो डरपोक हैं, अत: सदा ऐसी ही बातें कहा करते हैं। ये कभी हम लोगों की वुद्धि नहीं चाहते। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! दुर्योधन के ऐसा कहने पर राजा की आज्ञा शिरोधार्य करके वह सूत प्रातिकामी शीघ्र चला गया एवं जैसे कुत्ता सिंह की माँद में घुसे, उसी प्रकार उस राजभवन में प्रवेश करके वह पाण्डवों की महारानी के पास गया। प्रातिकामी बोला- द्रुपदकुमारी! धर्मराज युधिष्ठिर जूए के मद से उन्मत्त हो गये थे। उन्होंने सर्वस्व हारकर आप-को दाँव पर लगा दिया। तब दुर्योधन ने आपको जीत लिया। याज्ञसेनी! अब आप धृतराष्ट्र के महल में पधारें। मैं आपको वहाँ दासी का काम करवाने के लिये ले चलता हूँ। द्रौपदी ने कहा- प्रातिकामिन्! तू ऐसी बात कैसे कहता है? कौन राजकुमार अपनी पत्नी को दाँव पर रखकर जूआ खेलेगा? क्या राजा युधिष्ठिर जूए के नशे में इतने पागल हो गये कि उनके पास जुआरियों को देने के लिये दूसरा कोई धन नहीं रह गया? प्रातिकामी बोला- राजकुमारी! जब जुआरियों को देने के लिये दूसरा कोई धन नहीं रह गया, तब अजातशत्रु पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर इस प्रकार जुआ खेलने लगे। पहले तो उन्होंने अपने भाइयों को दाँव पर लगाया उसके बाद अपने को और अन्त में आपको भी दाँव पर रख दिया। द्रौपदी ने कहा- सूतपुत्र! तुम सभा में उन जुआरी महाराज के पास जाओ और जाकर यह पूछो कि ‘आप पहले अपने को हारे थे या मुझे?' सूतनन्दन! यह जानकर आओ। तब मुझे ले चलो। राजा क्या करना चाहते हैं? यह जानकर ही मैं दु:खिनी अबला उस सभा में चलूँगी। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! प्रातिकामी ने सभा में जाकर राजाओं के बीच में बैठे हुए युधिष्ठिर से द्रौपदी की वह बात कर सुनायी। उसने कहा- ‘द्रौपदी आपसे पूछना चाहती है कि किस-किस वस्तु के स्वामी रहते हुए आप मुझे हारे हैं? आप पहले अपने को हारे हैं या मुझे?’ राजन्! उस समय युधिष्ठिर अचेत और निष्प्राण-से हो रहे थे, अत: उन्होंने प्रातिकामी को भला-बुरा कुछ भी उत्तर नहीं दिया। तब दुर्योधन बोला- सूतपुत्र! जाकर कह दो, द्रौपदी यही आकर अपने इस प्रश्न को पूछे। यहीं सब सभासद् उसके प्रश्न और युधिष्ठिर के उत्तर को सुनें। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! प्रातिकामी दुर्योधन के वश में था, इसलिये वह राजभवन में जाकर द्रौपदी से व्यथित होकर बोला। प्रातिकामी ने कहा- राजकुमारी! वे (दुर्योधन आदि) सभासद् तुम्हें सभा में ही बुला रहे हैं। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है, अब कौरवों के विनाश का समय आ गया है। जो (दुर्योधन) इतना गिर गया है कि तुम्हें सभा में बुलाने का साहस करता है, वह कभी अपने धन-वैभव की रक्षा नहीं कर सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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