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महाभारत: उद्योग पर्व: त्रिषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
दुर्योधन द्वारा अपने पक्ष की प्रबलता का वर्णन करना और विदुर का दम की महिमा बताना
- दुर्योधन बोला-पितामह! मनुष्यों में हम और पाण्डव शिक्षा की दृष्टि से समान हैं, हमारा जन्म भी एक ही कुल में हुआ है; फिर आप यह कैसे मानते हैं कि युद्ध में एकमात्र कुंतीकुमारों की ही विजय होगी। (1)
- बल, पराक्रम, समवयस्कता, प्रतिभा और शास्त्रज्ञान इन सभी दृष्टियों से हम लोग और पाण्डव समान ही हैं। (2)
- अस्त्र-बल, योद्धओं के संग्रह, हाथों की फुर्ती तथा युद्ध-कौशल में भी हम और वे एक-से ही हैं, सभी समान जाति के हैं और सबके सब मनुष्य योनि में ही उत्पन्न हुए हैं। (3)
- दादाजी! ऐसी दशा में भी आप कैसे जानते हैं कि विजय कुंतीपुत्रों की ही होगी। मैं आप, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, बाह्लिक तथा अन्य राजाओं के पराक्रम का भरोसा करके युद्ध का आरम्भ नहीं कर रहा हूँ। (4)
- मैं विकर्तन पुत्र कर्ण तथा मेरा भाई दु:शासन हम तीन ही मिलकर युद्धभूमि में पांचों पाण्डवों को तीक्ष्ण बाणों से मार डालेंगे। (5)
- राजन! तदनंतर पर्याप्त दक्षिण वाले महायज्ञों का अनुष्ठान करके गायें, घाड़े और धन दान में लेकर ब्राह्मणों को तृप्त करूंगा। (6)
- जैसे व्याध हरिण के बच्चों को जाल या फंदे में फंसाकर खींचते हैं और जैसे जल का प्रवाह कर्ण्धार रहित नौका-रोहियों को भंवर में डुबो देता है, उसी प्रकार जब मेरे सैनिक अपने बाहुबल से पाण्डवों को पीड़ित करेंगे, उस समय रथ और हाथी सवारों से भरी हुई मेरी विशाल वाहिनी की ओर देखते हुए वे पाण्डव और वह श्रीकृष्ण सब अपना अहंकार त्याग देंगे। (7-8)
- विदुर ने कहा- सिद्वांत के जानने वाले वृद्ध पुरुष कहते हैं कि संसार में दम ही कल्याण का परम साधन है। ब्राह्मण के लिये तो विशेषरूप से है। वही सनातन धर्म है। (9)
- जो दम रूपी गुण से युक्त है, उसी को दान, क्षमा और सिद्धि का यथार्थ लाभ प्राप्त होता है; क्योंकि दम ही दान, तपस्या, ज्ञान और स्वाध्याय का सम्पादन करता है। (10)
- दम तेज की वृद्धि करता है। दम पवित्र एवं उत्तम साधन है। दम से निष्पाप एवं बढ़े हुए तेज से सम्पन्न पुरुष परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। (11)
- जैसे मांसभोजी हिंसक पशुओं से सब जीव डरते रहते हैं, उसी प्रकार अदांत[1] पुरुषों से सभी प्राणियों को सदा भय बना रहता है, जिनको हिंसा आदि दुष्कर्मों से रोकने के लिये ब्रह्माजी ने क्षत्रिय जाति की सृष्टि की है। (12)
- चारों आश्रमों में दम को ही उत्तम व्रत बताया गया है। यह दम जिन पुरुषों के अभ्यास में आकर उनके अभ्युदय का कारण बन जाता है, उनमें प्रकट होने वाले चिह्नों का मैं वर्णन करता हूँ। (13)
- राजेन्द्र! जिस पुरुष में क्षमा, धैर्य, अहिंसा, समदर्शिता, सत्य, सरलता, इन्द्रियसंयम, धीरता, मृदुता, लज्जा, स्थिरता, उदारता, अक्रोध, संतोष और श्रद्धा-ये गुण विद्यमान हैं, वह पुरुष दांत [2] माना गया है। (14-15)
- दमनशील पुरुष काम, लोभ, अभिमान, क्रोध, निद्रा, आत्मप्रशंसा, मान, ईर्ष्या तथा शोक-इन दुर्गुणों को अपने पास नहीं फटकने देता। कुटिलता और शठता का अभाव तथा आत्मशुद्धि यह दमयुक्त पुरुष का लक्षण है। (16)
- जो निर्लोभ, कम से कम चाहने वाला, भोगों के चिंतन से दूर रहने वाला तथा समुद्र के समान गम्भीर है, उस पुरुष को दांत[3] कहा गया है। (17)
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