महाभारत वन पर्व अध्याय 78 श्लोक 1-19

अष्टसप्ततितम (78) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: अष्टसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


राजा नल का पुष्कर को जूए में हराना और उसको राजधानी में भेजकर अपने नगर में प्रवेश करना

बृहदश्व मुनि कहते हैं- युधिष्ठिर! निषध नरेश एक मास तक कुण्डिनपुर में रहकर राजा भीम की आज्ञा ले थोड़े से सेवकों सहित वहाँ से निषध देश की ओर प्रस्थित हुए। उनके साथ चारों ओर से सोलह हाथियों द्वारा घिरा हुआ एक सुन्दर रथ, पचास घोड़े और छः सौ पैदल सैनिक थे। महामना राजा नल ने इन सबके द्वारा पृथ्वी को कम्पित-सी करते हुए बड़ी उतावली के साथ रोषावेश में भरे वेगपूर्वक निषध देश की राजधानी में प्रवेश किया। तदनन्तर! वीरसेनपुत्र नल ने पुष्कर के पास जाकर कहा- ‘अब हम दोनों फिर से जूआ खेलें। मैंने बहुत धन प्राप्त किया है। दमयन्ती तथा अन्य जो कुछ भी मेरे पास है, यह सब मेरी ओर से सारा राज्य ही दांव पर रखा जायेगा। इस एक पण के साथ हम दोनों में फिर जूए का खेल प्रारम्भ हो, यह मेरा निश्चित विचार है। तुम्हारा भला हो, यदि ऐसा न कर सको तो हम दोनों अपने प्राणों की बाजी लगावें।

जूए के दांव में दूसरे का राज्य या धन जीतकर रख लिया जाये तो उसे यदि वह पुनः खेलना चाहे तो प्रतिपण (बदले का दाव) देना चाहिये, वह परम धर्म कहा गया है। यदि तुम पासों से जूआ खेलना न चाहो तो बाणों द्वारा युद्ध का जूआ आरम्भ होना चाहिये। राजन्! द्वैरथ युद्ध के द्वारा तुम्हारी अथवा मेरी शांति हो जाये। यह राज्य हमारी वंश परम्परा के उपभोग में आने वाला है। जिस-किसी उपाय से भी जैसे-तैसे इसका उद्धार करना चाहिये; ऐसा वृद्ध पुरुषों का उपेदश है। पुष्कर! आज तुम दो में से एक में मन लगाओ। छलपूर्वक जूआ खेलो अथवा युद्ध के लिये धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाओ’।

निषधराज नल के ऐसा कहने पर पुष्कर ने अपनी विजय को अवश्यम्भावी मानकर हंसते हुए उनसे कहा- ‘नैषध! सौभाग्य की बात है कि तुमने दांव पर लगाने के लिये धन का उपार्जन कर लिया है। यह भी आनंद की बात है कि दमयन्ती के दुष्कर्मों का क्षय हो गया। महाबाहु नरेश! सौभाग्य से तुम पत्नी सहित अभी जीवित हो। इसी धन को जीत लेने पर दमयन्ती श्रृंगार करके निश्चय ही मेरी सेवा में उपस्थित होगी, ठीक उसी तरह, जैसे स्वर्गलोक की अप्सरा देवराज इन्द्र की सेवा में जाती है। नैषध! मैं प्रतिदिन तुम्हारी याद करता हूँ और तुम्हारी राह भी देखा करता हूँ। शत्रुओं के साथ जूआ खेलने से मुझे कभी तृप्ति ही नहीं होती। आज श्रेष्ठ अंगों वाली अनिन्द्य सुन्दरी दमयन्ती को जीतकर मैं कृतार्थ हो जाऊंगा; क्योंकि वह सदा मेरे हृदय मंदिर में निवास करती है’।

इस प्रकार बहुत-से असम्बद्ध प्रलाप करने वाले पुष्कर की वे बातें सुनकर राजा नल को बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने तलवार से उसका सिर काट लेने की इच्छा की। रोष से उनकी आंखें लाल-लाल हो गयीं तो भी राजा नल ने हंसते हुए उससे कहा- ‘अब हम दोनों जूआ प्रारम्भ करें, तुम अभी व्यर्थ बकवाद क्यों करते हो? हार जाने पर ऐसी बातें न कर सकोगे।' तदनन्तर पुष्कर तथा राजा नल में एक ही दांव लगाने की शर्त रखकर जूए का खेल प्रारम्भ हुआ। तब वीर नल ने पुष्कर को हरा दिया। पुष्कर ने रत्न, खजाना तथा प्राणों तक की बाजी लगा दी थी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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