महाभारत आदि पर्व अध्याय 3 श्लोक 1-16

तृतीय (3) अध्‍याय: आदि पर्व (पौष्य पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


जनमेजय को सरमा का शाप, जनमेजय द्वारा सोमश्रवा का पुरोहित के पद पर वरण, आरुणि, उपमन्यु, वेद और उत्तंक की गुरुभक्ति तथा उत्तंक का सर्पयज्ञ के लिये जनमेजय को प्रोत्सहान देना

उग्रश्रवा जी कहते हैं- परिक्षित के पुत्र जनमेजय अपने भाईयों के साथ कुरुक्षेत्र में दीर्घकाल तक चलने वाले यज्ञ का अनुष्ठान करते थे। उनके तीन भाई थे- श्रुतसेन, उग्रसेन और भीमसेन। वे तीनों उस यज्ञ में बैठे थे। इतने में ही देवताओं की कुतिया सरमा का पुत्र सारमेय वहाँ आया। जनमेजय के भाईयों ने उस कुत्ते को मारा। तब यह रोता हुआ अपनी माँ के पास गया। बार-बार रोते हुए अपने उस पुत्र से माता ने पूछा ‘बेटा! क्यों रोता है? किसने तुझे मारा है?’ माता के इस प्रकार पूछने पर उसने उत्तर दिया- 'माँ! मुझे जनमेजय के भाईयों ने मारा है’। तब माता उससे बोली- बेटा! अवश्य ही तूने उनका कोई प्रकट रूप में अपराध किया होगा, जिसके कारण उन्होंने तुझे मारा है।' तब उसने माता से पुनः इस प्रकार कहा- 'मैंने कोई अपराध नहीं किया है। न तो उनके हविष्य की ओर देखा और न उसे चाटा ही है।' यह सुनकर पुत्र के दुःख से दुखी हुई उसकी माता सरमा उस सत्र में आयी, जहाँ जनमेजय अपने भाईयों के साथ दीर्घकालीन सत्र का अनुष्ठान कर रहे थे।

वहाँ क्रोध में भरी हुई सरमा ने जनमेजय से कहा- ‘मेरे इस पुत्र ने तुम्हारा कोई अपराध नहीं किया था, न तो इसने हविष्य की ओर देखा और न उसे चाटा ही था, तब तुमने इसे क्यों मारा? किन्तु जनमेजय और उनके भाईयों ने इसका कुछ भी उत्तर नहीं दिया। तब सरमा ने उनसे कहा, ‘मेरा पुत्र निरपाध था, तो भी तुमने इसे मारा है अतः तुम्हारे ऊपर अकस्मात ऐसा भय उपस्थित होगा, जिसकी पहले से कोई सम्भावना न रही हो।' देवताओं की कुतिया सरमा के इस प्रकार शाप देने पर जनमेजय को घबराहट हुई और वे बहुत दुखी हो गये। उस सत्र के समाप्त होने पर वे हस्तिनापुर में आये और अपने योग्य पुरोहित के दूँढ़ने का उद्देश्य यह था कि वह मेरी इस शापरूप पापकृत्या को (जो बल, आयु और प्राण का नाश करने वाली है) शान्त कर दे।

एक दिन परीक्षितपुत्र जनमेजय शिकार खेलने के लिये वन में गये। वहाँ उन्होंने एक आश्रम देखा, जो उन्हीं के राज्य के किसी प्रदेश में विद्यमान था। उस आश्रम में श्रुतश्रवा नाम से प्रसिद्ध एक ऋषि रहते थे। उनके पुत्र का नाम था सोमश्रवा। सोमश्रवा सदा तपस्या में ही लगे रहते थे। परीक्षितकुमार जनमेजय ने महर्षि श्रुतश्रवा के पास जाकर उनके पुत्र सोमश्रवा का पुरोहित पद के लिये वरण किया। राजा ने पहले महर्षि को नमस्कार करके कहा- ‘भगवान! आपके ये पुत्र सोमश्रवा मेरे पुरोहित हों’। उनके ऐसा कहने पर श्रुतश्रवा ने जनमेजय को इस प्रकार उत्तर दिया- ‘महाराज जनमेजय! मेरा यह पुत्र सोमश्रवा सर्पिणी के गर्भ से पैदा हुआ है। यह बड़ा तपस्वी और स्वाध्यायशील है। मेरे तपोबल से इसका भरण-पोषण हुआ है। एक समय एक सर्पिणी ने मेरा वीर्य-पान कर लिया था, अतः उसके पेट से इसका जन्म हुआ है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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