पच्चविंशत्यधिकद्विशततम (225) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
महाभारत: वन पर्व: पच्चविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
मार्कण्डेय जी कहते हैं- नरेश्वर! अंगिरा की पत्नि शिवा शील, रूप और सद्गुणों से सम्पन्न थी। सुन्दरी स्वाहा देवी पहले उसी का रूप धारण करके अग्नि देव के निकट गयी और उनसे इस प्रकार बोली- ‘अग्ने! मैं कामवेदना से संतप्त हूं। तुम मुझे अपने हृदय में स्थान दो। यदि ऐसा नहीं करोगे तो यह निश्चय जान लो, मैं अपने प्राण त्याग दूंगी। हुताशन! मैं अंगिरा की पत्नी हूँ। मेरा नाम शिवा है। दूसरी ऋषिपत्नियों ने सलाह करके एक निश्चय पर पहुँचकर मुझे यहाँ भेजा है।' अग्नि ने पूछा- देवि! तुम तथा दूसरी सप्तर्षियों की सभी प्यारी स्त्रियां, जिनके विषय में अभी तुमने चर्चा की है, कैसे जानती हैं कि मैं तुम लोगों के प्रति कामभाव से पीड़ित हूँ। शिवा बोली- अग्निदेव! तुम हमें सदा ही प्रिय रहे हो; परंतु हम लोग तुम से सदा डरती आ रही हैं। इन दिनों तुम्हारी चेष्टाओं से मन की बात जानकर मेरी सखियों ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है। मैं समागम की इच्छा से यहाँ आयी हूँ। तुम स्वत: प्राप्त हुए काम-सुख का शीघ्र उपभोग करो। हुताशन! वे भगिनीस्वरूप सखियां मेरी राह देख रही हैं, अत: मैं शीघ्र चली जाऊंगी। मार्कण्डेय जी कहते हैं- राजन्! तब अग्नि देव ने प्रेम और प्रसन्नता के साथ उस शिवा को हृदय से लगाया (शिवा के रूप में) स्वाहा देवी ने प्रेमपूर्वक अग्नि देव से समागम करके उनके वीर्य को हाथ में ले लिया। तत्पश्चात् उसने कुछ सोचकर कहा- ‘अग्निकुलनन्दन! जो लोग वन में मेरे इस रूप को देखेंगे, वे ब्राह्मण पत्नियों को झूठा दोष लगायेंगे। अत: मैं इस रहस्य को गुप्त रखने के लिये ‘गरुडी’ पक्षिणी का रूप धारण कर लेती हूँ। इस प्रकार मेरा इस वन से सुखपूर्वक निकलना सम्भव हो सकेगा।' मार्कण्डेय जी कहते हैं- राजन्! ऐसा कहकर वह तत्काल गरुडी का रूप धारण करके उस महान् वन से बाहर निकल गयी। आगे जाने पर उसने सरकंडों के समूह से आच्छादित श्वेत पर्वत के शिखर को देखा। सात सिरों वाले अद्भुत नाग, जिनकी दृष्टि में ही विष भरा था, उस पर्वत की रक्षा करते थे। इनके सिवा राक्षस, पिशाच, भयानक भूतगण, राक्षसी समुदाय तथा अनेक पशु-पक्षियों से भी वह पर्वत भरा हुआ था। अनेकानेक नदी और झरने वहाँ बहते थे तथा नाना प्रकार के वृक्ष उस पर्वत की शोभा बढ़ाते थे। शुभस्वरूपा स्वाहा देवी ने सहसा उस दुर्गम शैलशिखर पर जाकर एक सुवर्णमय कुण्ड में शीघ्रतापूर्वक उस शुक्र (वीर्य) को डाल दिया। कुरुश्रेष्ठ! उस देवी ने सातों महात्मा सप्तर्षियों की पत्नियों के समान रूप धारण करके अग्नि देव के साथ समागम की इच्छा की थी; किंतु अरुन्धती की तपस्या तथा पतिशुश्रूषा के प्रभाव से वह उनका दिव्य रूप धारण न कर सकी, इसलिये छ: बार ही अग्नि के वीर्य को वहाँ डालने में सफल हुर्इ। अग्नि देव की कामना रखने वाली स्वाहा ने प्रतिपदा को उस कुण्ड में उनका वीर्य डाला था। स्कन्दित (स्खलित) हुए उस वीर्य ने वहाँ एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। ऋषियों ने उसका बड़ा सम्मान किया। वह स्कन्दित होने के कारण स्कन्द कहलाया। उसके छ: सिर, बारह कान, बारह नैत्र और बारह भुजाएं थीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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